Traditional Holi festival of Garhwal and Kumaon Uttarakhand : गढ़वाल की होली कुमाऊ की होली से सैकड़ों साल पुरातन फिर भी शास्त्रीय होली में कुमाऊ से काफी पीछे है गढ़वाल !
* Manoj Ishtwal
शायद देवभूमि गढ़वाल पूरे भारत बर्ष का पहला ऐसा क्षेत्र हैं जहाँ होली सिर्फ कृष्ण या राम यानि द्वापर या त्रेता में प्रचलित नहीं रही बल्कि यह सतयुग में ब्रह्मा बिष्णु महेश की होली मानी जाती है, जबकि वर्तमान में साहित्यकार, इतिहासकार इसे मात्र 200 बर्ष पुरानी मानते हैं.
शायद यह काल घोषित करना जल्दबाजी होगी क्योंकि अगर ब्रज में कृष्ण की रसिया होली है तो बुन्देलखण्ड में फ़ाग, और बिहार में जोगीरा प्रसिद्ध मानी गयी है जिनका काल बेहद पुरातन माना जाता रहा है. यहाँ सतयुग, त्रेता या द्वापर में होली का भले ही प्रसंग न आता हो लेकिन इन युगों में पैदा हुए ब्रह्मा, बिष्णु, महेश, राम और कृष्ण की होली पर कई होली गीत रचे गए हैं. सिर्फ उत्तराखंड ही देश का ऐसा राज्य है जहाँ सतयुगी होली गीत हैं यानि पृथ्वी संरचना को दर्शाते शिब की होली के गीत जैसे-
जल बीच कमल को फूल उगो, अब भाई कमल से ब्रह्म उगो,
ब्रह्म की नाभि से श्रृष्टि है पैदा, ब्रह्मा श्रृष्टि की रंचणा करो !
इस गीत में ब्रह्म बिष्णु और महेश द्वारा जिस प्रकार श्रृष्टि संरचना की गयी है वह अतुलनीय है. यह गीत उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र की होली का वह पहला गीत है जिसे सिर्फ और सिर्फ गढ़वाल क्षेत्र में तब गाया जाता है जब फाल्गुन शुक्ल सप्तमी के दिन ज्योतिष के लग्नानुसार गॉव के लोग पद्म (पंय्याँ) व मेहलू (मेंळऊ) के वृक्ष की टहनी काटकर लाते हैं. पद्म की टहनी पर चीर बंधन वहीँ काटते समय होता है जबकि मेहलू की टहनी जो सफ़ेद/ नीले फूलों से लकदक होती है पर लाल चीर बंदन तब होता है जब गॉव के पंचायती आँगन के मध्य उसे विधि विधान से गाढा जाता है जिसे होलिका का स्वरुप माना जाता है. वहीँ इसी दिन या इस से एक आध दिन पूर्व एक बांस का ध्वज बनाया जाता है जिसकी होलिका के साथ ही प्राण प्रतिष्ठा की जाती है. इस पर बंधने वाली ध्वज पताका का रंग सफ़ेद होता है. मूलतः इसे अच्छाई का प्रतीक माना जाता है और वह ध्वज प्रहलाद ध्वज कहलाता है. यहाँ जौ तिल से जहाँ पद्म वृक्ष व मेहलू वृक्ष की तहनियों को पंचायती आँगन के बीचों बीच रोपा जाता है वहीँ ध्वज, हारमोनियम, ढोलक और खडताल पर भी जौ तिल छिडककर मंत्रोचारण के साथ होली का शुभारम्भ किया जाता है. जिसमे सबसे पहले उपरोक्त गीत को ही गाया जाता है जो सतयुगी गीत है व पृथ्वी संरचना का एक उदाहरण है.
उसके बाद त्रेता काल पर आकर “दशरथ को लछिमन बाल जति, पाप न लागो एक रति या फिर चल प्यारे रघुवीर जनकापूरी में, जनकापुरी में सीता स्वयम्बर ..इत्यादि गीतों का चलन है वहीँ दूसरी ओर अगर यह होलिका पंचायती आँगन में हो व वहां देवी माँ का मंदिर स्थापित हो तो देवी की स्तुति कुछ इस तरह होती है-
हर हर पीपल पात जय देवी आदि भवानी,
कहाँ तेरो जन्मनिवास जय देवी आदि भवानी
फिर शिब मंदिर हो तो यही शब्द कुछ इस तरह गाये जाते हैं.-
चम्पा चमेली के नौ दस फूल कि गौरा हार गूंथी है.
गौरा गूंथो हार शिबजी के गल में बिराजे !!
इसी गीत में तीनों देव ही नहीं बल्कि सतयुग द्वापर व त्रेता तक के सभी देवताओं को होली पर स्थान दिया जाता है जैसे-
कमला ने गूंथों हार ब्रह्मा के गल में बिराजे!
लक्ष्मी ने गूंथो हार बिष्णु के गल में बिराजे!
सीता ने गूंथों हार राम के गल में बिराजे.
राधा ने गूंथों हार कृष्ण के गल में बिराजे!!
इसी तरह ध्वज की परिकल्पना भले ही भक्त प्रहलाद से की जाती हो लेकिन इसे हनुमान का स्वरूप समझ कर इस पर भी गीत गाये जाते हैं यानि हनुमान पूरी होली में होली के होल्यारों के साथ रहते हैं शायद तभी ये हुल्यारे एक गॉव से दुसरे गॉव जाकर होली तो मांगते हैं लेकिन अपने हनुमान रूप के लिए प्रसिद्ध किसी की ककडी, किसी की नारंगी, मौसमी या खेतों में मूला उखाड़कर खाते कम हैं और फैंकते ज्यादा हैं.
एक एकादश हीरा न बीरा वंशी की भौंण सुने रघुवीरा …
ये वाला गीत राम कृष्ण को एक मंच पर लाता है वहीँ हनुमान भी आकर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं जैसे – कहो पवनसुत वीर लंका कैसी बनी है!
होलिका दहन की परम्परा का श्रीगणेश भारत बर्ष के जिस प्रदेश में हुआ जहाँ भगवान् ने हृणाकश्यप की पाशविक शक्तियों पर विजय पाने के लिए पशु व इंसान के मिश्रित अवतार में खुद को ढाला हो वहां आज होली नाममात्र की रह गयी है.
आपको जानकारी दे दूँ कि भक्त प्रहलाद के राम राम जाप से त्रास खाए हृणाकश्यप ने जब देखा कि प्रहलाद को मारने के सारे दांव उसके समाप्त हो गए हैं तब अपनी बहन होलिका जो आग से नहीं जलती थी की गोद में भक्त प्रहलाद को बैठाकर एक लोहखम्ब से बाँधने के बाद हृणाकश्यप ने भयंकर आग लगा दी लेकिन प्रहलाद का मंत्र जाप यहाँ भी न टूटा और होलिका अग्नि में भस्म हो गयी जबकि वह लोहखम्ब फटा जिस से नरसिंग अवतार जन्मे जिन्होंने हृणाकश्यप का वध किया. आज भी वह शहर जोशीमठ उत्तराखंड राज्य के गढ़वाल क्षेत्र में है. यहीं से होली का जन्म माना जाता है.
गढ़वाल की होली से पुरानी वर्तमान साहित्यकार या इतिहासकार कुमाऊ मंडल की होली को मानते हैं और उसका भी काल लगभग 200 साल पुराना मानते हैं जो सर्वथा सत्य नहीं कहा जा सकता क्योंकि जिस होली का यह काल इतिहासकार या साहित्यकार बता रहे हैं ब्रिटिश काल में कुमाऊं की होली शास्त्रीय संगीत के ज्ञाता उस्ताद अमानत हुसैन की बैठकी होली का काल माना है उनके पश्चात मथुरा व ग्वालियर से भी यहाँ होली पर मुस्लिम संगीतज्ञ आते थे. ब्रिटिश काल यानि 1850 में भी कुमाऊँ में बैठकी होली का प्रचलन था जबकि 1870 में अमानत अली हुसैन का होली का ठुमरी गायन बेहद लोकप्रिय माना गया है जिसमें 16 मात्राएँ प्रचलित रही. जो कृष्ण के सोलह अवतारों में गिनी गयी लेकिन इसमें लखनऊ राज दरवार व केसरबाग़ का भी उल्लेख आया है!
इसमें कोई शक नहीं किया जा सकता कि 16 मात्राओं में गाई जाने वाली शास्त्रीय संगीत के साथ होली का चलन गढ़वाल में नहीं के बराबर है जबकि कुमाऊ होली के रंग का ऐसा स्वरुप है जहाँ पूष के प्रथम रविवार से होली की शुरुआत मानी जाती है जबकि गढ़वाल में लगभग एक माह बाद फाल्गुन से ! जोकि फाल्गुन पूर्णिमा में इसका समापन होता है.
वहीँ कुमाऊं होली के रंगों में ऐसा रंगा रहता है कि उसका शबाब जाने का नाम नहीं लेता. यहाँ की अंतिम होली पिथौरागढ़ की मानी जाती है जो रामनवमी के दिन समाप्त होती है. इसका मतलब यह हुआ कि कुमाऊ में होली का चलन तीन से चार माह का है जबकि गढ़वाल में यह एक हफ्ते से एक माह में सिमट गयी है.
जहाँ कुमाऊ में होली खडी व बैठकी दोनों का प्रचलन हैं वहीँ यहाँ का जनमानस राग ठुमरी, राग झिझोरी, राग धमाल, राग जंगल, राग काफ़ी, राग जैवन्ती, राग दरवारी, राग खमार, र्राग भैरवी सहित विभिन्न रागों में अपनी होली की विरासत को ज्यों का त्यों बचाए हैं जबकि गढ़वाल क्षेत्र इसमें बेहद पिछड गया है और यही कारण भी है कि उसकी होली विरासत कुमाऊ की होली विरासतों से कम आंकी जाने लगी है.
कुमाऊ में चंद वंशज राजाओं में भी होली का प्रचलन था ऐसा माना जाता है. कहते हैं कि चंद राजाओं की जासूस व बेहद खूबसूरत उस काल की छमुना पातर ही शास्त्रीय होली कुमाऊ दरवार से गढ़वाल में लाई जोकि सर्वथा गलत है. इसमें कोई दोहराय नहीं कि छमुना गायन नृत्य व रिझाने की कला की महारथी थी लेकिन गढ़वाल के पंवार (पाल) वंशी राजाओं के दरवार में इसे 17वीं सदी में गढ़दरवार के चित्रकार कवि मौलाराम तुन्वर लेकर आ गए थे. जोकि वर्तमान से लगभग 500 बर्ष पूर्व की बात है. और यहाँ की होली में राजस्थान के राजघरानों की शास्त्रीय होली का ज्यादा बर्चस्व रहा लेकिन भाग्य की बिडम्बना देखिये अपने को स्वयम्बू यानि बोलान्दा बद्री मानने वाले टिहरी नरेश के काल में होली ने टिहरी से बिलकुल मुंह ही मोड़ दिया क्योंकि राजाज्ञा के चलते यह सब नहीं हो पाया जिसका दुष्प्रभाव ब्रिटिश गढ़वाल पर भी पड़ा. और होली गढ़वाल में लगातार पिछडती गयी.
ऐग्ये बसंत ऋतू ऐग्येनी होली, आम के पेड़ में कोयल बोली..से शुरू होने वाली होली का समापन “होली ख़त्म ह्वेनी पूर्णमासी राती, जगमग जोत जले दिया बाती …से समाप्त होती है. आज भी पहाड़ की पुरातन सभ्यता कई मामलों में देश काल के जनमानस की अगुवाई करती दिखाई देती है तभी तो यह देवभूमि कहलाती है.