प्राकृतिक आपदाओं को रोकना बेशक हम इन्सानों के हाथ में नहीं है लेकिन यह हम सभी जानते हैं कि उत्तराखण्ड में देवीय आपदाओं के लिहाज से 15 जून से लेकर 15 सितम्बर
तक का समय बेहद संवेदनशील रहता है । इस दरमियान समय से पहले की बरसात भी कब तबाही का सबब बन जाय यह कोई नहीं जानताऔर ऐसी परिस्थितियां अमूमन मानसून से पहले जून या फिर सितम्बर माह में ज्यादा बनती है । कभी – कभी तो मई माह में भी ऐसी विभीषिकाओं से उत्तराखण्ड को दो चार होना पड़ा है । इसके लिए पिछले 15 वर्षों के आंकड़े गवाही के तौर पर देखे जा सकते हैं । लेकिन पिछली घटनाओं को दरकिनार कत्तई नहीं किया जा सकता है । सरकार को ऐसी आपदाओं से निपटने के लिए पूर्वाभ्यास कर लेना चाहिए था और हमेशा तैयार रहना भी होगा ।
सरकार चला रहे लोगों की जनता के प्रति सीधी जबाब देई भी बनती है और जिम्मेदारी भी । मै खुद पूर्व की सरकार में प्रदेश का मुख्यमंत्री रह चुका हूँ आप सभी को भली भांति ज्ञात होगा कि वर्ष 2010 में राज्य के विभिन्न हिस्सों में भयानक आपदा आई थी। तब मेरा हमेशा इस बात पर विशेष जोर होता था कि ऐसी घटनाओं से निपटने के लिए समय से पहले पूरे राज्य में जिम्मेदार विभागों के अधिकारीयों के साथ आपदा जैंसे गंभीर मुद्दों पर समय-समय पर बैठकों का आयोजन कर विभागीय अधिकारियों व कर्मचारियों की जिम्मेदारी भी सुनिश्चित की जाय व आपदा के वक्त भिन्न-भिन्न विभागों में आपसी सामंजस्य भी बना रहे और सभी एक जगह से ही दिशा-निर्देश प्राप्त कर राहत कार्यों को सम्पादित भी करें । जिससे कि ऐसी भयावह आपदाओं के वक्त अफरा-तफरी का माहौल को रोका जा सकता है और सही समय पर सही जगह जरुरत मंदों को मदद मिल पाती है । लेकिन ऐसी घटनाओं के वक्त आपको सबसे ज्यादा शिकायत पीडि़त लोगों की ओर से अलग-अलग क्षेत्रों से मिलती है कि उनके ईलाके में घटना घटी है और ऐसे में अभी तक उनकी सुध लेने कोई अधिकारी या नेता तक नहीं पहुंचा है । देखिए यह गौर करने वाली बात है कि क्या मांग होती है लोगों की? वह सिर्फ और सिर्फ विपदा के वक्त अपने जनप्रतिनिधि को अपने करीब पाना चाहते हैं ठीक उसी तरह जैंसे कि एक बच्चा जब किसी मुसीबत में फंसता है तो वह सबसे पहले अपनी माँ या पिता ; अभिभावक द्ध को याद करता है। यह इन्सानियत का मुद्दा है जो सीधे-सीधे भावनाओं से जुड़ा होता है । और ऐसे मौकों पर वाकई प्रदेश के मुख्यमंत्री जनप्रतिनिधि विधायक सांसद मौके पर न पहुँचें तो जनता का गुस्सा सरकार पर ही उतरता है और यह नाराजगी भी एकदम जायज है। क्योंकि जनता द्वारा जनता के लिए चुने गए जनप्रतिनिधियों की सीधी जिम्मेदारी जनता के प्रति ही बनती है ।
लेकिन जब हमारी सरकार थी तो तब मैंने हमेशा इन बातों का विशेष ख्याल रखा कि हर मुसीबत के समय मुझे प्रदेश का मुखिया होने के नाते बड़ी ही जिम्मेदारी के साथ जनता के बीच सबसे पहले होना चाहिए। और ऐसी विपदा के समय में हमारा जनता के बीच में होना ही सबसे पहली फौरी राहत पीडि़तों के लिए होती है। यहां सभी राजनीतिक पहचान रखने वाले जिम्मेदार लोगों को यह गौर करना जरुरी है कि जब हम विपदा की घड़ी में लोगों के साथ खड़े हो जाते हैं तो उससे पीडि़़तों को सांत्वना तो मिलती ही है लेकिन मुसीबत की घड़ी में सरकार को अपने द्वार पर खड़ी अपने साथ पाकर उनका हौशला भी बढ़ता है जो उन्हें ;पीडि़तोंद्ध को भीषण हादसे से उबरने में मदद भी करता है और यह जाहिर सी बात भी है कि अगर दुर्गम क्षेत्रों में हुई ऐसी प्राकृतिक आपदाओं के वक्त स्वयं प्रदेश के मुख्यमंत्री सबसे पहले मौके पर पहुंचते हैं तो सरकारी तंत्र स्वतः ही सक्रीय भी हो जाता है । जिससे राहत और बचाव कार्य भी ही तेजी से होने लगते हैं ।
परन्तु उत्तराखण्ड में इस बार यह सच है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ जिससे सरकार पर लोग भरोषा करते तीन दिन बाद केदारनाथ में मुख्यमंत्री जी गए जबकि यह पहले ही मालूम हो चुका था कि केदारनाथ धाम तबाह हो चुका है यह सूचना ही अपने आप में बेहद चिंता में डाल देने वाली थी । वह इसलिए भी कि हमारे देव आंगन में जहां तबाही मची है वहां देश और दुनियां के हजारों लोग एक साथ मौजूद थे इस नाते भी प्रदेश के मुखिया को वस्तु स्थिति को जानने के लिए स्वयं ही सबसे पहले मौके पर पहुचना चाहिए था ना कि अपने अधीनस्थ लोगों की टीम को भेज जाना चाहिए था । यह राजनीतिक नहीं बल्कि मानवीय विवेक का सवाल भी है । और इसका खामियाजा मुख्यमंत्री जी को प्रदेश के विभिन्न आपदाग्रस्त क्षेत्रों में अपने ही सरकार में मौजूद पार्टी के विधायको एवं दर्जा प्राप्त मंत्रियो के गुस्से व भारी विरोध के रूप में झेलना पड़ा । जबकि विपक्ष भी इस बात को भली भांति समझ रहा था कि आखिर आपदाग्रस्त क्षेत्रों में मुख्यमंत्री जी के दौरे में देरी क्यों? लेकिन मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने विपदा की घड़ी में अपनी सजग एवं जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभाते हुए सरकार को पीडि़तों को मदद पहुँचाने में हरसम्भव साथ देने का भरोसा दिया था। परन्तु सरकार को भी अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी से निभाना चाहिये था। लेकिन मुद्दे की बात तो यह भी है कि जब सरकार कैसा मौजूद नुमाइन्दे ही अपनी सरकार पर उंगली उठाने लगे तो आखिर विपक्ष भी सिर्फ मानवीय आधार पर कब तक साथ दे! यह सरकार को सुनिश्चित करना होगा। यह एक सोचनीय विषय भी है । केदारनाथ के आसपास क्षेत्रों में असंख्य लोगों के शव मिल रहे हैं। जो आपदा के बाद जान बचाने के लिए ऊँचाई वाले क्षेत्रों में पहुंच गए थे लेकिन सरकार ने कैसा सर्च आपरेशन चलाया यह भी सवालों के घेरे में आ गया है। भारी संख्या में लोग भूख प्यास एंव ठंड से मरे जबकि मोबाईल सिंग्नल ट्रेस कर तब इन्हें आसानी से ढूंढा जा सकता था लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया इसे सरासर सरकार की लापरवाही ही माना जायेगा।
बहारहाल हमें ऐसी विभीषिकाओं से निपटने के लिए मानसिक एवं शारीरिक रूप से तैयार रहने की आवश्यकता समय से पहले होनी चाहिए। घटना घट जाने के बाद अफरा-तफरी का माहौल बढने से खतरा कम नहीं बल्कि ज्यादा बढ़ जाता है। लेकिन सेना के जवानों ने अपने कुशल अभ्यास एवं अदम्य साहस के बलबूते हजारों लोगों की जान बचाई है । देश की सेना के यह जवान देव भूमि में विपदा के वक्त देवदूत बनकर उतरे हैं। आज हमारी राज्य सरकार को सबसे पहले सेना से यह सीख लेनी होगी कि आपदा के वक्त कैंसे जरुरत मंदों को मदद पहुंचाई जाती है। सरकार को अपने सरकारी तंत्र को मजबूती देने के प्रयास भी करने होंगे । ऐसे विषम हालातों से निपटने के लिए पुर्वाभ्यास की जरुरत होती है ना कि आपदाओं के आने का इन्तजार किया जाता है ।