Hospitals in Uttarakhand ! नरेंद्र सिंह नेगी के और उत्तराखंड के अस्पताल । क्लिक करें और पढ़ें वरिष्ठ पत्रकार डॉ0 वीरेंद्र वर्त्वाल का यह विशेष लेख ।
देहरादून, पिछले साल इन दिनों मैं गढ़वाल के लोकगायकों पर ’हमारे सुर’ नामक किताब लिख रहा था। एक इंटरव्यू के लिए तीन-चार बार प्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के घर जाना पड़ा। मेरा एक सवाल था-’सब्बि धाणी देरादूण’ गाने वाले नेगी जी पर खुद भी देहरादून बसने का आरोप है। इस पर आप क्या कहेंगे? नेगी जी का जवाब था-देहरादून में मकान है, घर तो पौड़ी गांव में ही है, जहां मेरा आना-जाना अनवरत रहता है। 65 साल वहीं गुजारे हैं। इस उम्र में डाॅक्टरों के पास चिकित्सकीय सुविधाओं के लिए आना मेरी भी मजबूरी है।
नेगी जी के साक्षात्कार की यह आखिरी पंक्ति महत्वपूर्ण है। उत्तराखंड मंे चिकित्सकीय सुविधाओं के लिहाज से। शायद नरेंद्र सिंह नेगी जैसे कितने मजबूर लोग हैं, जो देहरादून में केवल बीमारियों की डर के कारण यानी इलाज के लिए ही जीवन का आखिरी समय गुजार रहे हैं। वे अपने जीवन के बाकी समय को जीने के लिए पहाड़ छोड़ रहे हैं, जिस पहाड़ ने उनके जीवन सींचा और संजोया है।
अगर पहाड़ में समुचित इलाज मिले तो शायद ही कोई शौक से इस घुटनभरे माहौल में आने के लिए लालायित हो। पहली बात यह कि उत्तराखंड के गांवों या फिर जिला मुख्यालयों तक भी समुचित मेडिकल फैसिलिटीज हों तो आदमी मजबूरी में कमांडर और बसों के हिचकोले खाकर देहरादून क्यों नापेगा! दूसरी बात यह कि देहरादून आकर भी 15-20 प्रतिशत गरीब मरीज पहाड वापस नहीं, हरिद्वार ’चले जाते’ हैं, क्योंकि वे डाॅक्टरों और अस्पतालों के बीच फुटबाॅल बनकर और भी गंभीर हो जाते हैं इसका परिणाम बाद में मौत होता है। जो मरीज ठीक होकर पहाड लौटते हैं, उनमें कई लोग किराये के पैसे उधार मांग कर जाते हैं। कुछ लोग तो गहने या खेत बेचकर भी इलाज करवाते होंगे।
देहरादून को मेडिकल और एजुकेशन हब के नाम से जाना जाता है। अनुमानतः यहां दो सौ के करीब छोटे-बड़े अस्पताल-क्लीनिक होंगे। यहां सबसे बड़ा मैक्स अस्पताल है। इसे फाइव स्टार अस्पताल या राजसी चिकित्सालय भी कहा जाता है। हल लगाकर गांव में गुजारा करने वाला जलमदास मैक्स का नाम लेने तक से घबराता है, क्योंकि वहां एक दिन का खर्चा करीब एक लाख के बराबर है।
सरकारी में सबसे बड़ा यहां दून चिकित्सालय है, लेकिन गरीबों के इस अस्पताल की हालत गरीबों जैसी ही रहती है। सुविधाएं नही ंके बराबर। कई मरीजों के तीमारदारों को पता रहता है कि जब बाद में दून से मरीज को जौलीग्रांट ही रेफर किया जाना है तो वहां समय जाया करके कोई फायदा नहीं।
बाकी बचे मंझोले अस्पताल-क्लीनिक तो उनकी रामकहानी रोचक, परंतु भौंचक करने वाली है। पांच और सात सौ के करीब डाॅक्टर की फीस है। टेस्ट करवाने अपने परिचित डाइग्नोस्टिक सेंटर भेजेंगे, क्योंकि वहां कमीशन बंधा है। अनजाने में मरीज ने दूसरे सेंटर से डाइग्नोस कराया तो डाॅक्टर गुड़ खाकर चढ़ जाता है। कभी-कभी तो उस रिपोर्ट को स्वीकार भी नहीं करते। कई बार तो इन ’भगवानों’ का व्यवहार ऐसा होता है कि मरीज सोचता है-धरती फट जाए और मैं उस में समा जाऊं। बड़े सरकारी अस्पतालों के कुछ डाॅक्टरों ने घरों में ’चोरी-चुपके’ वाले क्लीनिक खोल रखे हैं। एक ऐसे महोदय और नामी डाॅक्टर से कुछ दिन मेरा भी पाला पड़ा। मैंने अपने मरीज की समस्या के बारे में जब दो-तीन सवाल उनसे किए तो उनका बीपी 140 पार कर गया। मैं निराश होकर वहां से अपने मरीज को घर ले आया और दुआ करता हूं वह अब किसी तीमारदार और मरीज से ऐसा व्यवहार न करे।
बड़ा सवाल यह कि क्या हम सतरह साल तक राज्य में ऐसी चिकित्सा व्यवस्था विकसित नहीं कर पाए, जिससे गरीब और साधारणा आदमी को समय पर समुचित और सस्ता इलाज मिल पाए। पहाड़ों से आकर रोगियांे को यहां भी दर-दर भटकना और लुटना पड़ रहा है और हम फिर भी अपनी उपलब्धियों पर फूलकर कुप्पा हो रहे हैं। हम कैसे किसी को पहाड़ से देहरादून, दिल्ली, चंडीगढ़ जाने से रोक सकते हैं?
हाल ही में सरकार ने डाॅक्टरों के तबादले पहाड़ में किए, उनमें से कितनों ने ज्वाइन किया और जिन्होंने ज्वाइन किया, वे किस शिद्दत से तथा कितने दिन वहां रहेंगे, यह सवाल भी अहम है। सुना है कि पहाड़ से मैदान स्थानांतरित किए गए डाॅक्टर तुरंत आ चुके हैं।
देहरादून में चिकित्सा व्यवस्था की बदमिजाजी से हर कोई आजिज है। नरेंद्र सिंह नेगी जी के साथ सीएम और पूरा सरकारी अमला था (यह होना भी चाहिए था), इसलिए उन्हें समय पर समुचित इलाज मिल गया और डाॅक्टरों ने मसले को बहुत ही गंभीरता से लिया। अब आप अनुमान लगा सकते हैं कि आम और गरीब मरीज कैसी यंत्रणा भोगता होगा!
An excellent write up by Dr Bartwal as it highlights horrendous situation of paucity of competent doctors in remote region of Garhwal. Most of the people descend from Pahar down to Dehradun only for better education, medical treatment and employment, and it makes Dehradun a pressure cooker wherein we find suffocation and shrinking environmental concerns at all.
Dr Bartwal however cast light only on conditions of medical treatment which is one of the broad issues. Kudo to the publisher of this online portal and special thanks to Dr Bartwal ji