पौड़ी बस स्टेशन में मनोधर कुकसाल जी से कभी मिल तो लें !
पौड़ी बस स्टेशन में वर्षों से यात्रियों को किताबें और घरेलू उपयोग की चीजें बेचते मनोधर प्रसाद कुकसाल जी को कभी आपने देखा है। नहीं देखा तो कोई बात नहीं। जब पौड़ी जाना हो तो एक बार उनसे जरूर मिलें और बात भी करें। आनन्द भी आयेगा और आप सोचेगें भी कि 10-15 हजार रुपये महीने की पगार के लिए घर-बार छोड़ कर मैदानी महानगरों में मुडं-कपाल कर रहे हमारे स्थानीय युवा ऐसे ही पेशे क्यों नहीं अपना रहे हैं। पहाड़ी व्यक्तियों के उद्यमीय व्यवहार में अपवाद स्वरूप हैं मनोधर जी, जरा हट कर।
प्रातः 10 बजे से सांय 3 बजे तक पौड़ी बस स्टेशन पर एक बस से दूसरी बस में चढ़ते-उतरते उन्हें देखा जा सकता है। हर समय प्रफुल्लित और हंसता चेहरा उनकी सफल व्यापारिक वृत्ति का परिचायक है। कौन गाड़ी कब आयेगी-जायेगी, ड्रायवर-कडंक्ट्ररों के आपसे संदेशों की डिलीवरी और यात्रियों की ‘जरा म्यार सामान देख ल्यावा, मि अब्बी ओंदू’ जैसा काम भी वे बखूबी करते हैं। उसमें झंझट और अपेक्षा का भाव कहीं नहीं है। कमाल के किस्सागोई मनोधर के पास रोचक और रोमांचकारी किस्सों का भंडार है। ‘बस कब छूटेगी’ की मनोदशा से ऊबे यात्रियों के बेहतरीन टाईमपास के साथ वे उनको अपना ग्राहक बनाने में निपुणता रखते हैं। पौड़ी स्टेशन पर मनोधर कुकसाल जी की विश्वसनीयता और लोकप्रियता का यही राज है।
मनोधर प्रसाद कुकसाल (65 वर्षीय) पौड़ी नगर के नजदीकी गांव बैंग्वाड़ी के निवासी हैं। उन्होने 12वीं (कार्मस) की शिक्षा अपने ताऊ जी के पास रहते हुए घनानंद इण्टर कालेज, मसूरी में ली। आर्थिक तंगी के कारण तब आगे पढ़ने की गुजांइश नहीें थी लिहाजा शौकिया फोटोग्राफी को ही व्यावसायिक तौर पर अपना
लिया। कुछ वर्ष मसूरी और दिल्ली में फोटोग्राफी की। पर बात कुछ जमी नहीं और वे सन् 1976 में वापस अपने गांव बैंग्वाड़ी आ गए। पौड़ी में फोटोग्राफी पेशे से वे जुड़े। पौड़ी के बेहतरीन फोटोग्राफरों में उनका नाम शुमार हुआ। पौड़ी में रहकर घुमन्तू फोटोग्राफी का काम उन्होने लगभग 16 वर्षों तक किया। उन्हें लगा कि फोटोग्राफी अब बीते जमाने की बात हो गई है और उससे पारिवार का गुजारा चलना मुश्किल है। ऐसे समय में उनकी प्रभावी वाकपटुता काम आयी और बसों में सामान बेचने का काम उन्होने शुरू कर दिया। विगत 25 वर्षों से वे पौड़ी बस स्टेशन पर यह कार्य कर रहे हैं। एक पुत्र और एक पुत्री के पिता मनोधर जी बच्चों को उच्च शिक्षा दिला कर स्वयं अपने ही गांव बैंग्वाड़ी में सुखी-सम्पन्न जीवन जी रहे हैं।
मनोधर बसों में बैठे यात्रियों को जनरल नालेज, किस्से-कहानी, उपन्यास, पत्रिकाओं के अलावा कंधी, सूई-तागा, बटन, सेफ्टी पिन, छोटी कैंची आदि बेचते हैं। अपने पास 3 से 6 महीने का स्टाक रखते हुए वे सामानों की पैकिंग स्वयं करते हैं। उनका कहना है ‘प्रतिदिन औसतन 1 हजार रुपये की बिक्री करने के उपरान्त उन्हें 500 रुपये की बचत आसानी हो जाती है। इस हिसाब से 15 हजार रुपये महीना तो निकल ही जाता है।’ मनोधर खफा हैं कि राज्य बनने के बाद पौड़ी की दुर्दशा ही हुई है। यहां से सरकारी कार्यालयों के खिसकने से पौड़ी की अहमियत कम हुई है। जिससे उनके काम पर भी बुरा असर पड़ा है। फिर भी मजे का घन्धा है। उनका स्पष्ट मत है कि पहाड़ के युवाओं की संकोची और जोखिम न लेने की प्रवृत्ति उन्हें कोई भी उद्यम करने से रोकती है। यही कारण है कि पहाड़ के हर बाजार में सारे मुनाफे के धन्धों में बाहरी व्यक्ति का ही वर्चस्व है। यहां का आदमी परचून और जनरल स्टोर की दुकान से आगे नहीं बड़ पा रहा है। ऐसे में उन्हें कितनी ही सुविधायें दे भी दें उससे वह अपने आलस्य से कुछ समय के लिए उठ तो सकता है, पर सफल उद्यमीय वृत्ति के लिए उसे खुद ही जागना और समझना होगा।
साभार : अरुण कुकसाल
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