खबरी माफिया… उत्तराखंड में वेब मीडिया की आड़ में धंधेबाजों की फ़ौज हो रही है खड़ी । वास्तविक पत्रकार जा रहे हैं हासिए पर ! तंत्र को खंगालनी होगी इनकी कुण्डली ।
सबसे पहले मैं यहां पर यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ वास्तविक रूप से पत्रकारिता के क्षेत्र में बेहद ईमानदारी से कार्य करने वाले लोग मेरे इस लेख के साथ स्वयं को न जोड़ें यह रिपोर्ट उन लोगों को समर्पित है जो पत्रकार नहीं बल्कि धंधेबाज हैं और अब अधेड़ उम्र में इस फिल्ड में करिअर संवार नहीं रहे बल्कि अपने धंधे को बढ़ाने का जुगाड़ तलाशने के साथ ही सस्ती लोकप्रियता के लिए दरबदर भटक रहे हैं । वास्तविक पत्रकारिता करने वालों के बीच ये धंधेबाज दीमक बनकर अपना स्वार्थ पूरा कर रहे हैं । जिन्हें कुछ हमारे ही कलम बेचू तथाकथित पलीत पत्रकार अपने छोटे-छोटे स्वर्थों के लिए पनपा रहे हैं । अब वक्त आ गया है इन्हें धीरे-धीरे बेनकाब करने का ।
बचके रहना रे बाबा, बचके रहना रे ……..!
अब सब दलाल धंधेबाज डिजीटल मीडिया में खप रहे हैं। ऐसे खप रहे हैं कि खनन माफिया, लकड़ी माफिया, शराब माफिया से लेकर हर तरह के माफिया इसमें खप रहे हैं। कुछ नए माफिया भी इसमें खपने को तैयार हैं। और तो और कई फर्जी डाॅक्टरी सलाह देने और दवा-दारू वाले , जमीनों के दलाल, सरकारी तबादले कराने वाले दलाल, मंत्री संत्रियो से सेटिंग कर दूसरों को धंधा देकर कमीशन बटोरने वाले दलाल भी इसमें खप रहे हैं। बस केवल नाई ही बचे हैं। कुकुरमुत्ते तो देखे ही होंगे आपने । उनमें कुछ समान हाइट वाले, कुछ छोटे और कुछ बड़े रहते हैं। डिजीटल टाइप के खबरी माफिया भी कुछ इसी तरह हैं।
एक मसला और है प्रदेश में कलम बेचू प्रजाति भी गाजरघास की तरह उग रही है । जिसमें से एक तो आजकल खूब चर्चित भी है । वैसे इस कलम बेचू का भी अपना कोई ईमान या धर्म नहीं है यह गूगल से कॉपी पेस्ट कर फिर उसमें काट छाँट करके दलालों को अपना लिखा हुआ चंद रुपयों या फिर मासिक ध्याड़ी पर बेच रहा है । खेल देखिये गजब का है साहब … . धंधेबाज जो बन गए पत्रकार साहब ! इनको पता ही नहीं होता है और उनके नाम व फोटो के साथ बकायदा कलम बेच्चु द्वारा खबर तान दी जा रही हैं । कभी कभी ये धंधेबाज स्थापित पत्रकारों की फेसबुक वॉल पर सेंधमारी कर उनकी लिखी हुई पोस्ट को उठाकर अपने पोर्टल में लगा दे रहे हैं ताकि लोगों के मन में विश्वास बना रहे । यह कहना या लिखना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कलम बेचू और दलालों ने पत्रकारिता को नरक बना दिया। अब लोगों को नरक जाने की जरूरत नहीं। खैर कलम बेचू कब तक बिकेंगे…पाप चढ़ेगा…इनको। फिर पता चलेगा।
माफ करना गैंग वालों…। लेकिन अब आपकी यह करतूत शासन तक पहुंचाना और वास्तविक पत्रकारिता विरादरी के बीच लाना भी आवश्यक हो गया है ।
सबसे पहले मैं यहां पर यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ वास्तविक रूप से पत्रकारिता के क्षेत्र में बेहद ईमानदारी से कार्य करने वाले लोग मेरे इस लेख के साथ स्वयं को न जोड़ें यह रिपोर्ट उन लोगों को समर्पित है जो पत्रकार नहीं बल्कि धंधेबाज हैं और अब अधेड़ उम्र में इस फिल्ड में करिअर संवार नहीं रहे बल्कि अपने धंधे को बढ़ाने का जुगाड़ तलाशने के साथ ही सस्ती लोकप्रियता के लिए दरबदर भटक रहे हैं । वास्तविक पत्रकारिता करने वालों के बीच ये धंधेबाज दीमक बनकर अपना स्वार्थ पूरा कर रहे हैं । जिन्हें कुछ हमारे ही कलम बेचू तथाकथित पलीत पत्रकार अपने छोटे-छोटे स्वर्थों के लिए पनपा रहे हैं । अब वक्त आ गया है इन्हें धीरे-धीरे बेनकाब करने का ।
खबरों के दुकानदार और दलाल तो आपने सुने ही होंगे। इसमें कई तरह की प्रजातियां पाई जाती हैं। इसी क्रम में एक और प्रजाति ने जन्म लिया है। कर्म तो इसके भी खबरी दुकानदारों और दलालों की तरह ही हैं, लेकिन काम किसी माफिया के माफिक करते हैं पूरी गैंग बनाकर । ऐसी गैंग कि, जिस पर हमला करना है और जिसको शिकार बनाना हो। उसे चारों ओर से घेर लेते हैं। नाम है डिजीटल मीडिया। इसके मीडिया के डिजीटल में से अगर टल हटा दें तो केवल डिजिट ही बचती है। और इन खबरी माफिया की डिजिट भी लगातार बढ़ती ही जा रही है। अब कुछ कर तो सकते नहीं। कमसे कम लोगों को बचके रहना रे बाबा, बचके रहना की सलाह तो दे ही सकते हैं। मानना और न मानना आपका व्यक्तिगत निर्णय होगा। इसमें हमें घसीटने की कोई जरूरत नहीं है। माफ करना लिखे बिना मैं रह नहीं सकता और सच लिखने से मुझे कोई रोक नहीं सकता…।
डिजीटल टाइप के खबरी माफिया कुछ इसी तरह होते हैं। इसमें जो ईमानदार हैं। उनका ईमान दूसरे बेचकर खा गए। कुछ जो बचे हैं, उनको कोई पूछता नहीं है। अब बचते हैं मीडियम टाइप के बेईमान और बड़े माफिया श्रेणी के खबरी पोर्टल वाले खबरी…।
चल केवल लास्ट की दो श्रेणियों की ही रही है। बची-खुची शक्ति फर्जी टाइप के खबरी गैंग वाले हथिया लेते हैं। और छोड़ो प्रेस क्लब की कुर्सियां भी प्रेस कांफ्रेंस में इन्हीं को समर्पित रहती हैं। किसी को प्रेस करानी होती है, तो वह चिंता में डूब जाते हैं कि चाय-पानी का खर्च कैसे निकले। कभी-कभी तो इतनी गैंग जमा हो जाती है कि प्रेस कराने वाले को बेटी या बेटी की शादी के काॅकटेल जितना खर्च करना पड़ जाता है। बेचारा मरता, क्या न करता । प्रेस कराने वाला रो तो सकता नहीं, बस हंसने का नाटक करता रहता है। ये गैंग नेताओं को तो चूना लगा ही रही, सरकार पर भी दीमक की तरह लग गए हैं। धीरे-धीरे, जैसे-जैसे ये सूचना विभाग से विज्ञापन हासिल करने के लिए योग्य होंगे। ये अपने दीमक वाला रूप धारण कर, सरकार पर लग जाएंगे। सरकार जागो और दीमकों को लगने से पहले ही जहर देकर मार डालो। वरना…दीमक क्या करते हैं..? आप जानते ही होंगे। हां एक बात और मुझे मत घेरना। मेरे पास बस लिखने के आइडिया ही बचे हैं। वैसे वो किसी को दे नहीं सकता। दे भी दिए तो कोई उन पर लिखेगा नहीं। चमचागिरी मैं करता नहीं। सच गैंग टाइप के लोग लिखते नहीं।
धन्य हैं ये खबरी माफिया !
उत्तराखण्ड सूचना विभाग व राज्य सरकार को समय रहते धंधेबाजों की पहचान करनी होगी वरना यह आने वाले दिनों में नासुर बन जाएंगे ।
कौन कलम बेचू है और कौन नहीं इसका निर्धारण कौन करेगा ?
हम स्वयं तो ही निर्णय करने वाले नहीं बन सकते !