अपनों ने दुत्कारा और गैरों पुचकारा । उत्तराखण्ड का लाल विदेश में कर रहा है कमाल ।
सुमित वापस अपने प्रदेश आने की ख्वाहिश रखते हैं। लेकिन, उनको इस बात का डर सताता है कि उनको यहां काम मिलेगा या नहीं। पहले के अनुभव उनके कुछ अच्छे नहीं रहे हैं। प्रदेश में सरकार रिवर्स माइग्रेशन के दावे तो करती है, लेकिन ऐसे में कोई वापस अपने घर कैसे लौटेगा, जहां से उसे फिर्स इस वजह से जाना पड़ा हो कि उसने जो प्रोजेक्ट दिए, उनको स्वीकृति नहीं किया गया। राजनीतिक पंहुच के चलते बाहर से आए लोगों को खूब काम दिया गया। सुमित की तरह ही ना जाने कितने युवा होंगे, जिनको सिर्फ इस वजह से काम नहीं मिलता कि उनकी राजनीतिक पंहुच नहीं होती।
अगर आपके पास काबिलियत है, तो लाख रुकावेटें भी आपकोे नहीं रोक पाती। कई मामलों में काबिल लोगों को भी उनके मुकाम तक पंहुचने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। उनकी खासियत ही यह होती है कि वो संघर्षों का डटकर मुकाबला करते हैं। हार नहीं मानते। बस अपना काम करते चले जाते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं, जिनको न तो उनके अपने प्रदेश में काम मिला और ना देश में। उन्होंने अपनी कामयाबी की इबारत विदेशों में जाकर लिखी। ऐसे ही एक शख्स हैं सुमित नेगी।
सुमित नेगी उन लोगों में शामिल हैं, जिन्होंने उत्तराखंड में घर-घर कूड़ा उठाने का कांसेप्ट लाने में अहम भूमिका निभाई। नगर निगम देहरादून में आपके घर के बाहर जो गाड़ी कूड़ा डालने की आवाज लगाती है। उसको आवाज देने में भी उनका योगदान रहा। नगर निगम देहरादून, कोटद्वार समेत कई जगहों पर उन्होंने काम किया, लेकिन उनको हर जगह से निराशा ही हाथ लगी। उसका सबसे बड़ा कारण रहा सेटिंग-गेटिंग। सुमित इस मामले में थोड़ा कमजोर हैं। सुमित ने जिस भी प्रोजेक्ट में हाथ डाला, वह किसी और को दे दिया गया।
नगर निगम देहरादून को साफ बनाने के लिए सुमित ने अपने आइडिया दिए, जो शामिल भी किए गए। प्रजेंटेशन भी दिए, पर काम नहीं मिला। जहां काम मिला, वहां राजनीति ने भट्टा बैठा दिया। सुमित एक समय काफी टूट चुके थे। हौसला खोने लगे थे। देश के कई नामी एनजीओ में नौकरी के लिए आवेदन किए, लेकिन किसीने उनको अपने साथ काम करने के काबिल नहीं समझा। इसी दौरान सुमित ने दुबई बेस्ड एक कंपनी में कूड़ा प्रबंधन प्रोजेक्ट के लिए आवेदन किया। इंटरव्यू हुआ। सुमित को सलेक्ट कर लिया गया।
आज सुमित नाइजीरिया में पोस्टेड हैं और वहां कूड़ा प्रबंधन के क्षेत्र में शानदार काम कर रहे हैं। उनके बेहतर काम का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कंपनी उनको प्रत्येक पांच माह में एक माह की छुट्टी देती है। घर आने और वापस जाने तक का पूरा खर्च भी देती है। पगार अलग से मिलती ही है। नाइजीरिया में कूड़े से बिजली बनाने, खाद बनाने से लेकर पाॅलीथिन से सड़कों पर पेटिंग के लिए बनाए जाने वाले मटीरियल पर भी काम कर रहे हैं।
सुमित वापस अपने प्रदेश आने की ख्वाहिश रखते हैं। लेकिन, उनको इस बात का डर सताता है कि उनको यहां काम मिलेगा या नहीं। पहले के अनुभव उनके कुछ अच्छे नहीं रहे हैं। प्रदेश में सरकार रिवर्स माइग्रेशन के दावे तो करती है, लेकिन ऐसे में कोई वापस अपने घर कैसे लौटेगा, जहां से उसे फिर्स इस वजह से जाना पड़ा हो कि उसने जो प्रोजेक्ट दिए, उनको स्वीकृति नहीं किया गया। राजनीतिक पंहुच के चलते बाहर से आए लोगों को खूब काम दिया गया। सुमित की तरह ही ना जाने कितने युवा होंगे, जिनको सिर्फ इस वजह से काम नहीं मिलता कि उनकी राजनीतिक पंहुच नहीं होती।
बहरहाल सरकार चाहे तो सुमित के अनुभवों का लाभ उठाकर प्रदेश के शहरों में कूड़ा प्रबंधन के काम को आसानी से करा सकती है। उनको कूड़ा प्रबंधन में महारथ हासिल है। सुमित ने ग्राम पंचायतों में भी कूड़ा प्रबंधन का आइडिया दिया था। आज गांवों में भी कूड़ा जमा हो रहा है, जिसमें बड़ी मात्रा में पाॅलिथीन भी होती है। पाॅलिथीन के नुकसान बताने की जरूरत नहीं है। अगर सरकार चाहे तो सुमित जैसे युवाओं को वापस बुलाकर कम पैसों में बेहतर कामकरा सकती है।