Yayawar Kamal daa : कमल दा की यायावरी जारी रहेगी । हम भी यायावर बनेंगे..
कमल दा केवल कमल दा नहीं थे। वो एक संपूर्ण विवार थे। एक ऐसा विचार जिसे हर कोई अपनाने को आतुर है। जो सुने ले, उन्हीं का होकर रह जाए। वो एक साधु थे। हिमालय के चितेरे संत। यायावर…जो आज भी यायावरी कर रहा है…लगातार। उनकी ये यायावरी आने वाले सालों में उत्तराखंड से निकलकर संभवत देश के हर कोने में जाए। आशा करता हूं कि वो हमारे साथ और हम उनके साथ यूं ही इस सफर में बने रहें…तब तक हम रहें।
कमल दा का नाम लिखते ही उनका चेहरा सामने आ जाता है। उनको भुलाना अपनी आम्ता को भुलाने जैसा है। जितने लोग उनको जानते होंगे। शायद ही कोई ऐसा होगा, जो उनको भुला पाया होगा। उनके जाने के बाद से ऐसा कभी नहीं लगा कि वे चले गए हैं। बस इतना लगता है कि उनसे बहुत दिनों से मुलाकात ही नहीं हुई। हां उनकी बरसी पर आज उनसे मिला। ये ऐसी मुलाकात थी, जिसमें थे तो बहुत सारे लोग, लेकिन मुझे ऐसा लग रहा था कि बस वो (कमल दा) मेरे ही सबसे ज्यादा करीब थे। शायद ऐसा ही हर कोई महसूस कर रहा होगा। कमल दा भौतिक रूप में जरूर चले गए हैं, लेकिन हैं वो हमारे आस-पास ही। अपने दोस्तों के रूप में। अपने विचारों, रचनाओं, घुमक्कड़ी में, हर उस फोटो में, जो उनकी दिमागी नजरों ने कैमरे के जरिए उतारी। हर उस पगडंडी पर, जिस पर कमल दा ने सफर किया, हर उस पहाड़ पर जहां उन्होंने कुछ वक्त बिताया, हर उस गांव और वहां के लोगों के दिलों में मन में, जहां-जहां कमल दा गए। हर कहीं बस कमल दा ही तो हैं। सिर्फ कमल दा। वो चिर काल तक जिंदा हैं। इस पीढ़ के लोगों में भी और उस पीढ़ी में भी अपने विचारों के साथ जिंदा रहेंगे। कमल दा केवल कमल दा नहीं थे। वो एक संपूर्ण विवार थे। एक ऐसा विचार जिसे हर कोई अपनाने को आतुर है। जो सुने ले, उन्हीं का होकर रह जाए। वो एक साधु थे। हिमालय के चितेरे संत। यायावर…जो आज भी यायावरी कर रहा है…लगातार। उनकी ये यायावरी आने वाले सालों में उत्तराखंड से निकलकर संभवत देश के हर कोने में जाए। आशा करता हूं कि वो हमारे साथ और हम उनके साथ यूं ही इस सफर में बने रहें…तब तक हम रहें।
आज यानि 3 जुलाई को कमल दा से एक साल बाद फिर से मुलाकात हुई। इस बार वो नहीं आए। वो भीतर खुद तस्वीरों में थे और बाहर उनकी तस्वीरों को लोग देख रहे थे। जितनी उत्सुकता बाहर लोगों को उनकी तस्वीरों को देखकर हो रही थी। लोगों के मन में उनकी फोटो देख, उनके बारे में अनगिनत तरह के ख्याल और विचार अंकुरित हो रहे थे। बिल्कुल वैसा ही माहौल भीतर था। मंच पर कमल दा को पुष्पांजलि देने के साथ उनके फोटा के साथ और उनके बारे में चर्चा और बातों का दौर शुरू हुआ।
शुरूआत कमल दा के अभिन्न मित्र डाॅ.शेखर पाठक ने की। शेखर दा ने कमल दा को करीब से देखा। करीब 40-45 साल साथ रहे। उन्होंने उनके हर पहलू के बारे में गहराई से बताया। अब तक जो कमल दा को जानते तो थे, लेकिन बहुत नजदीक से नहीं। वो उनके अब और करीब आने लगे थे। शेखर दा ने बताया कि कमल दा खुद को लेकर कितने लापरवाह थे। पर, समाज और समाज के लोगों के लिए बेहद संजीदा और संवेदनशील। कलम दा ने पहाड़ और पहाड़ के जीवन का गहरा अध्ययन किया था। लेकिन, कमल दा ने खुद को सामने कभी नहीं लाया।
खुद को बस पर्दे के पीछे ही रखने की कोशिशों में लगे रहते थे। जो लोग कमल दा को कम जानते थे। उन्होंने शेखर दा को सुनने के बाद कमल दा को और नजदीक से जाना। किस तरह 11 साल की छोटी उम्र से दमे की भयंकर और परेशान करने वाली बीमारी को हराते हुए उन्होंने पहोड़ों को घुटने टेकने पर मजबूर किया। शेखर दा ने हिमालय के सवालों के साथ ही उत्तराखंड की चिंता और चिंतन के विषयों और 18 साल के राज्य के सफर को कुछ 18-20 मिनटों में ही पूरा बयां कर दिया।
अब बारी उस शख्स की थी, जिसे आॅडिटोरियम में बैठे ज्यादातर लोगों ने किताबों और अखबारों में ही देखा था। जेएनययू के सफेद दाड़ी वाले पूर्व प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष कूटनीतिक अध्ययन, सेंटर फार इंटरनेशनल पाॅलिटिक्स, आॅर्गनाइजेशन एंड स्कूल आॅफ इंटरनेशनल स्टडीज। इंडिया कुक बुक, गारमेंट जर्निस इन इंडिया, क्लासिक कुकिंग ऑफ पंजाब, इंटरनेशनल रिलेशन इन 21 सेंचुरी। नाम पुष्पेश पंत। पुष्पेश दा कुछ बोलते इससे पहले वो फफक कर रो पड़े। उन्होंने अपनी नातिन की बात बताते हुए कहा कि उनके बेटे ने अपनी बेटी के सवाल के जवाब में कहा था कि कमल एक बहुत अच्छे इंसान थे। पुष्पेश दा ने एक और बात बताई कि कैसे कमल हर किसी के दिल में अपनी जगह बनाते थे। कमल दा के छोटे से लेकर देश-दुनिया की बड़ी शख्सियतों से सीधी बात-चीत थी, लेकिन कभी किसी को दिखाते नहीं थे। उन्होंने बताया कि कैसे कमल जोशी उनके परिवार का हिस्सा बने। कमल दा जिस जगह होते थे, उस वक्त वो केवल वहीं के हो जाते। कमल केवल उत्तराखंड के नहीं, पूरे देश की धरोहर हैं। उनकी जो भी बौधिक संपदा बची है। उसे दुनिया के सामने लाना है। मैं हैरान था कि इतना बड़ा प्रोफेसर एक साधारण पर असाधारण कमल दा के गहरे मुरीद थे। पुष्पेश दा, कमल दा की हर यादों को अपने आप में समेट लेना चाहते हैं। उनकी बातों में जो दर्द था। उनसे यह समझना आसान था कि कमल दा उनके जिस्म से सर्जरी कर अलग कर दिए गए एक अंग की तरह महससू हो रहे थे। उनकी बातें और सांसे यह सब बता रहे थे।
सिलसिला आगे बढ़ा। प्रसिद्ध साहित्यकार मंगलेश डबराल ने बोलना शुरू किया। अन्य लोगों की तरह वो भी कमल दा के मुरीद नजर आए। वो भी यह मानते हैं कि कमल बस कमल ही हो सकते थे। उनसे अच्छा इंसान शायद ही कोई हो। उन्होंने कमल दा के एक और पहलू को सामने लाया। अब तक हमने उनकी जो फोटो देखी, जिसमें वो किसी चेहरे की फोटो खींचते। हम उस फोटो के हाव-भाव देखकर बस अनुमान लगाते हैं। पर कमल दा उनको कैसे अपने कैमरे के पीछे छिपी आंखों से उतार लेते। वह हमारे लिए केवल कल्पना है। मंगलेश डबराल ने एक और बात कही कि कमल के पास दूसरे के चेहरों को पढ़ने की अद्भत कला थी। वो हर चेहरे को आसानी से पढ़ लेते थे। किसी को भी देखकर अंदाजा लगा लेते कि कौन सा आदमी किस वक्त में किस बात से और किस काम में किस तरह के भाव अपने चेहरे पर लेकर आएगा। उन्होंने कमल दा की खूबी को बकौल मंगलेश डबराल यह कविता नहीं पर कविता जैसी ही है में बयां किया।
अब बारी गढ़रत्न लोेक गायक नरेंद्र सिंह नेगी की थी। उन्होंने कमल दा की पत्रकारिता के बारे में कहा। कहा कि जब मैं सूचना विभाग में नौकरी करता था। तब कमल प्रेस कांफ्रेंस में आते और पत्रकारों की भीड़ से जो अलग आवाज और अलग सवाल होता था। समझो वो कमल जोशी ही होंगे। उन्हीं सवालों ने नेगी जी को कमल दा का मुरीद बना लिया और हमेशा के लिए अपना भी। बीमारी के बाद नरेंद्र सिंह नेगी कुछ जर्जर से जरूर नजर आ रहे थे, लेकिन कमल दा को श्रद्धांजलि देने की श्रद्धा उन्हें सर्वे चैक स्थित नैन सिंह आॅडिटोरियम खींच लाई।
सिलसिला आगे बढ़ा। बारी मशहूर पर्यावरण विशेषज्ञ पद्मश्री डाॅ. अनिल प्रकाश जोशी की थी। अब तक दुनिया के कई मंचों और यूनिवर्सिटीज में बोल चुके डाॅ. जोशी के सामने इस बार सबसे कठिन चुनौती थी। शायद उनके जीवन के सबसे कठिन विषय पर बोलने का वक्त था। वो बालते, इससे पहले उनकी आंखे भर आईं। उनके साथ कई और लोगों की आंखे भी नम हो रहीं थी। गीता दी मेरे पास ही बैठी थीं। खुद को संभालने की कोशिश कर रही थीं, लेकिन वो नाकाम रहीं। कई बार मैं भी खुद को नहीं रोक पाया। डाॅ. अनिल जोशी ने शायद सर्वाजनिक मंच से पहली बार कहा होगा कि कमल दा से उनके विचार और काम का तरीका बिल्कुल भी मेल नहीं खाता था। वैचारिक रूप से उनके बीच जितने भी मतभेद रहे होंगे, लेकिन, उतने ही दोनों एक-दूसरे के करीब भी थे। वो बहुत भावुक हो रहे थे। मैंने भी उनको पहली बार इस तरह भावुक होते देखा। कहा कि कमल दा कभी भी अपने से जुड़े सवालों के जवाब नहीं देते थे। उनसे जब भी पूछा कभी कुछ नहीं बोले, लेकिन अब उनको सारे सवालों के जवाब मिल चुके हैं। उन्होंने कमल दो को हमेशा के लिए अपने पास रख लिया है। जीवंत रूप में। अपने हेस्को परिसर में उनके नाम से आम के पौधे रोपे हैं। उनकी वो पूजा करते हैं। खुद उनको सींचते हैं।
धाध और हम संस्थाएं कार्यक्रम की आयोजक थी। धाध के केंद्रीय अध्यक्ष ब्यास जी भी कमल दा से प्रभावित हुए बगैर नहीं रह पाए। उन्होंने कहा कि कमल को नहीं जानता था, लेकिन पिछले कुछ दिनों से जितना भी जाना। बहुत नजदीक से जाना। कई बार खुद की आंखों को नम होने से नहीं रोक पाए। धाध के हर साथी ने बेहतरीन काम किया। कमल दा के दोस्तों ने अपनी दोस्ती को मजबूती से निभाया। हेस्को के साथियों ने सुबह से ही नहीं, बल्कि पिछले कुछ दिनों से कार्यक्रम के दिन तक चली हर तैयारी को पूरी जिम्मेदारी से निभाया और पूरा किया।
कमल दा के जितने भी दोस्त आए। हर कोई उनको अपने करीब पा रहा था। कोई उनकी हंसी-ठिठोली को सुन पा रहा था, कोई उनकी हाथ की अचानक पीछे से कंधे पर रखने के स्टाइल को, कोई डांट को और कोई लाड-प्यार को महसूस कर रहा था। खुद को पूरे एक साल बाद फिर से कमल दा के साथ होने का एहसास कर पा रहा था। सबके प्यारे कमल दा।
…मिस यू कमल दा…आप सच में बहुत याद आते हैं।