पहाड़ी बाजे ढ़ोल दमाऊँ के बीच अंग्रेजों का बैगपाइपर कैसे बन गया पहाड़ी संस्कृति का अहम हिस्सा !
पहाड़ी खासकर उत्तराखण्डी पहाड़ी, उसके परिवार में शादी पहाड़ के गांव में हो या मैदान के शहर में, उसमें ढ़ोल दमाऊँ के साथ मशकबीन की धुन न सुनने को मिले तो उत्साह काफी कम रहता है । ढ़ोल दमाऊँ और मशकबीन की मिश्रित धुन से बनने वाली त्रिवेणी घर परिवार के सदस्यों व आने वाले मेहमानों के उत्साह को चरम पर पहुंचा देता है । शादी वाले घर के सदस्यों की थकान तो इनकी धुन से फुर्र हो जाती है ।
हल्दी हाथ, सर्व-आरम्भ, घर्र्यपौण (आजकल कॉकटेल या मेहंदी) मंगलस्नान, गणेश पूजन, धारा पूजन, पौंणा (बारात) स्वागत, धूली अर्घ्य, गायदान , सासुभेंट से लेकर विदाई तक में पहाड़ी बाजों की अलग – अलग धुन होती है । कई बार शादी वाले घर से दूर – दूर के घरों में आराम कर रहे मेहमान या बारातियों को सिर्फ इन बाजों की धुन से संकेत मिल जाता है कि, विवाह के शुभस्थल पर अभी कौन सा संस्कार व रस्म पूजन का सम्पादन किया जा रहा है । गांवों में बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि जब तक संचार का कोई माध्यम नहीं होता था तो एक गांव से दूसरे गांव तक महज ढ़ोल और दमाऊँ बजाकर संकेत में संदेश भेज दिया जाता था । लेकिन अब संचार के क्षेत्र में तेजी से हुए विकास ने उस विधा को विलुप्त कर दिया है । लेकिन आज भी कई गांवों में रस्म के तौर पर यह सब देखने व सुनने को मिल जाताहै .
हाल ही में, मैं भी अपनी ससुराल जोशीमठ (नगर क्षेत्र) में गया था । वहाँ पर मेरी सबसे छोटी शाली शिवानी की शादी थी इस मौके पर मेरे शाले अंकित डिमरी ने ढ़ोल दमाऊँ और मशकबीन का अलग से इंतजाम अपने विवेक से किया था । अंकित देहरादून में माइक्रो बायोलॉजी से पढ़ाई पूरी करने के बाद अब रिसर्च की ओर बढ़ रहा है । लेकिन उसकी सभी व्यवस्थाओं के अलावा पहाड़ी बाजों ने तो 3 दिनों तक पूरे माहौल में ही संस्कृति और परम्परा का शानदार समावेश कर डाला था । जिसका एक-एक पल सबके लिए यादगार बन गया ।
इसी दरमियान मैंने भी मंगल स्नान के वक़्त ढ़ोल दमाऊँ और मशकबीन की धुन व वाद्य कलाकारों का अपने मोबाइल कैमरे की मदद से वीडियो बना दिया, जिसे आप सबके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ इस उम्मीद के साथ कि हम सब भी एक सामूहिक संकल्प अवश्य लें कि हम आप कहीं भी रहें परन्तु अपनी सांस्कृतिक व पारंपरिक जड़ों को न त्यागे बल्कि इन सबका बढ़-चढ़कर सम्मान करें और अपनाएं ।
आपमें से कितने लोगों को याद है पहाड़ी मशकबीन की धुन ?
पहाड़ी घाटियों में एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी तक दूर-दूर बसे गांव और उनमें से किसी एक गांव में हो रही शादी, फिर उसमें बजता ढ़ोल दमाऊँ और मशकबीन दूसरे गांवों में मौजूद लोगों को भी थिरकने के लिए मजबूर कर देता है । क्योंकि यह बाजा है ही ऐसा । वैसे तो ढ़ोल व दमाऊँ ही अपने आप में पूर्ण हैं लेकिन जब इनकी थाप में मशकबीन (बैगपाइपर) की धुन मिल जाती है तो उस वक़्त के माहौल में ऐसा समां बंध जाता है कि हर कोई धीरे-धीरे इसकी ओर खिंचा चला जाता है । फिर इनसे निकलने वाली धुन पर सिर्फ कमर नहीं लचकती बल्कि दिल के तार बाजों के साथ जुड़ जाते हैं और मौजूद लोग खुद-ब-खुद इनसे निकलने वाली धुनों थिरकने लगते हैं ।
पहाड़ी गाजे बाजे ढ़ोल दमाऊँ के बीच अंग्रेजों का बैगपाइपर कैसे बन गया पहाड़ी संस्कृति का अहम हिस्सा !
अमूमन आप लोग आज भी देखते होंगे कि ब्रिटेन के शाही परिवार में रचा बसा बैग पाईपर उनके स्वागत, सम्मान से लेकर हर छोटे बड़े मौके पर बैग पाईपर की धुन की अहम भूमिका होती है । इसके लिए बाकायदा अलग से रेजीमेंट भी है । लेकिन यह सर्व विदित है कि इसी ब्रिटिश हुकूमत का राज हमारे देश पर भी लंबे अरसे तक रहा । और उसी ब्रिटिश हुकूमत की देन से यह बैगपाइपर उत्तराखंड के पहाड़ तक पहुंच गया और इसे यहां नया नाम मिला मशकबीन या बीनबाजा ।
अंग्रेजो ने हमारे देश में ब्रिटिश शासन के दरमियान ही इस बाजे को हिंदुस्तान की (ब्रिटिश) फौज में भी जोड़ दिया था और स्वतंत्रा प्राप्ति से भी यह बाजा निरंतर हमारी सेना के साथ जुड़ता चला गया ।
इस वीडियो को भी देखें क्या है नजरिया चुनावों को लेकर इन मॉडल्स का ।
भारतीय सेना में खासकर गढ़वाल, कुमायूं रेजिमेंट का यह वाद्ययंत्र बैगपाइपर जिसे हम मशकबीन भी कहते दोनों रेजीमेंट की विशेष पहचान बन गया । और इन्ही दोनों रेजीमेंट में पहाड़ से सर्वाधिक लोग वर्षों से निरंतर सेवा देते हुए आ रहे हैं । और जिन लोगों ने सेना में सेवा देने के बाद रिटायरमेंट लिया तो वह इस बाजे को भी अपने साथ पहाड़ लाते गए । एक समय ऐसा भी था कि पहाड़ों में कई फौजियों के घरों में लाईसेंसी बंदूक के अलावा सुंदर चमचमाती बैगपाइपर भी बैठक कक्ष की शोभा बढ़ाते हुए दीवार में टांगी हुई दिखाई देती थी । धीरे-धीरे यह रोजगार का भी माध्यम बन गया । सेना में बैण्ड की सधी हुई धुनों में बजने वाले बैगपाइपर ने पहाड़ के ढ़ोल दमाऊँ में भी अपनी जुगलबंदी कर सबको प्रभावित कर दिया और देखते ही देखते यह पहाड़ी संस्कृति का अहम हिस्सा बन गया । पहाड़ी बाजों में मशकबीन के शामिल होने का समय सौ – सवा सौ साल पुराना माना जाता है । यहां बताते चलें कि बैगपाइपर स्कॉटलैंड का राष्ट्रीय वाद्ययंत्र है ।
लेकिन अब बढ़ते पलायन और बदलते जमाने के साथ धीरे-धीरे पहाड़ों की पहचान बना मशकबीन (बैगपाइपर) भी लुप्त होने के कगार पर है । पहाड़ी वाद्ययंत्र ढ़ोल दमाऊँ के साथ-साथ इसे भी प्रोत्साहित व संरक्षित किये जाने की सख्त जरूरत है ।
नोट : मैं कोई शोधकर्ता नहीं हूँ । समाज में बुद्धिजीवियों, संस्कृति कर्मियों, समाजसेवियों व अनुभवी बुजुर्गों से मिली जानकारी के आधार पर मशकबीन का संक्षेप परिचय आप सम्मानित पाठकजनों के सम्मुख प्रस्तुत किया है । कोई त्रुटि हो तो क्षमा करें व इस लेख पढ़ने के बाद सबसे नीचे कॉमेंट बॉक्स में अपनी राय व सुझाव अवश्य साझा करें । धन्यबाद ।
शशि भूषण मैठाणी पारस, स्वतंत्र लेखन कार्य व समाजसेवी । 9756838527, 7060214681
क्यों कहा केंद्रीय मंत्री व भाजपा नेता थावर चंद गहलोत ने कि उत्तराखंड में टूटेगा इस बार मिथक … नीचे वीडियो क्लिक करें देखें व सुनें ।
Bagpiper Masa kbeen pahadi dhol damaun : पहाड़ी बाजे ढ़ोल दमाऊँ के बीच अंग्रेजों का बैगपाइपर कैसे बन गया पहाड़ी संस्कृति का अहम हिस्सा !
Bahut khub 👍👌
शशि जी बहुत सुन्दर लेख ।
सच में बिनबाज (मशकबीन )
के बिना हमारे पहाड़ की संस्क़ृति अधूरी सी लगती हैं। इसमे हमारे पहाड़ के लोगो को आगे आना चाहिए और सरकार को इसका संरक्षण करना चाहिये।