विदाई, सत्ता से या सियासत से ?
हरीश रावत जनता का मन पढ़ने और नब्ज समझने में माहिर रहे हैं। कर्णप्रिय घोषणाएँ उनकी कमजोरी बन गयी थी। वे हर तबके को घोषणाओं के जरिये छूना चाह रहे थे। दाई, ढोलवादक से लेकर पुरोहितों तक पेंशन हो या गाड़, गधेरे, गाय, गोबर, गोमूत्र, गंगा, गलगल तक उनकी अनन्त घोषणा श्रृंखला ये सब उनके जननेता बनने के नुस्खे थे। अपनी निजी लड़ाई को जनता की लड़ाई बनाना वे बखूबी जानते हैं। कभी तिवारी तो कभी बहुगुणा के खिलाफ वे अपनी लड़ाई को राज्यहित के नाम पर लड़ते रहे। आज स्टिंग प्रकरण में सत्ता से बेदखल हुए रावत फिर सत्तासीन होने की लड़ाई लोकतन्त्र बचाओ के नाम पर लड़ रहे हैं।
उनके राज में केदारनाथ आपदा के पीड़ित खुले आसमान के नीचे ठिठुरते रहे, घटिया शराब बिकती
रही, जेसीबी डम्परों से नदी नाले हलकान रहे, उनके काबिल सलाहकार मनमानी पर उतारू रहे किन्तु हरीश रावत अपनी धीर-गम्भीर मुद्रा, संतुलित भाषा और कड़ी कार्रवाही और निष्पक्ष जाँच का भरोसा दिलाकर हर कमी को ढकते रहे, यही उनके सत्ता संचालन का चातुर्य था जो जनता के बीच उनकी योग्य और संवेदनशील नेता की छवि गढ़ता था।
चार दशक की राजनीति के अनुभवी हरीश रावत भले ही स्टिंग प्रकरण से भीतर तक हिल गए हों मगर बेचारा बनकर सहानुभुति बटोरने वे फिर जनता के बीच हैं, मुख्यमंत्री की गद्दी पर बैठते समय हरीश रावत की कुछ शर्तें बहुगुणा बिना अक्ल लगाये मान गए, महेंद्र सिंह माहरा को राज्यसभा, अपने गुट के विधायकों को मंत्रिपद व विभाग साथ में विधानसभा स्पीकर पद, आखिरी शर्त बहुगुणा को सरदर्द और रावत को वरदान बनी। स्पीकर कुंजवाल
बहुगुणा को निरन्तर विकास कार्यों के नाम पर आइना दिखाते रहे, सार्वजनिक असन्तोष जताकर जनता की वाहवाही लूटते रहे जबकि यहसब हरीश रावत का एजेंडा था। रावत के प्रति अति स्वामीभक्ति ने उनकी वित्त विधेयक के अवसर पर निभाई गयी भूमिका उन्हैं चौराहे पर खड़ा कर गयी उन्होंने अपना और स्पीकर की गरिमा का दुहरा नुकसान किया।
हरीश रावत एक ओर सख्त प्रशासक की छवि भी गढ़ना चाहते थे और अपने इर्दगिर्द के दायरे, सलाहकारों को भी बनाये रखना चाहते थे। कोर्ट कचहरी के चक्कर काट रहे विवादों से जुड़े पुलिस प्रमुख को उन्होंने अखण्ड अभयदान दिया था। एक सर्वप्रिय नौकरशाह जिसकी चर्चा हर जुबान पर थी उसे सत्ता का सिरमौर बना दिया। कर्मठ अफसर उपेक्षित थे।
हरीश रावत सभी प्रमुख विरोधियों को निपटा चुके थे, कुछ बाहर जा चुके थे कुछ समर्पण कर चुके थे। बड़े बड़े आरोपों को अपने कौशल और मीडिया प्रबन्धन से प्रभावहीन कर चुके थे, सचिव शाहिद का स्टिंग इसका उदाहरण है। किन्तु रावत स्वयं अपने स्टिंग से स्तब्ध हैं। वे अतिविश्वास, विश्वासघात, कमजोर रणनीति, अनुभवहीन टीमवर्क जैसे हालातों में असमय स्टिंग के शिकार हो गए। स्टिंग ने रावत की असमय सत्ता से विदाई कर दी या सियासत से यह समय बताएगा।
लेखक राजनीतिक दल से जुड़े व्यक्ति हैं । लेख उनके व्यक्तिगत विचारों पर आधारित ।
Youth icon Yi National Creative Media Report
हरीश रावत जी की लोकप्रिय छवि को स्टिंग ने खत्म कर दिया।। शायद ही उनके कार्यकाल में ऐसा कोई मेला हो जहाँ वो ना गए हों और बड़े बड़े वादे ना किये हों। रही बात ये जो यात्रा आजकल चला रहे हैं। इसे लोकतंत्र बचाओ यात्रा ना कह कर हमें बचाओ यात्रा कहते तो ज्यादा ठीक होता।