Uttrakhand Migration : पलायन पर उपदेश तभी दें, पहले आप स्वयं उदाहरण प्रस्तुत करें …!
पलायन रोकने के लिए स्वयं से पहल करो, और चलो गांव वापस ।
दरअसल पलायन को लेकर अब आए दिन भिन्न-भिन्न मंचों से चिंता व्यक्त की जा रही है और हर चिंतक अपनी जिम्मेदारी से बच रहा है, और माईक पकड़ते ही उपदेशों की झड़ी लगा दे रहा है ।
अभी हाल ही में , मुझे भी देहरादून में आयोजित एक ऐसे ही मंच पर बुलाया गया था, जहां पर एक से बढ़कर एक वक़्ता अपनी राय ठोक रहे थे । तभी हाल ही में सेवा निवृत हुए पेशे से अध्यापक (गुरूजी) ने मंच सम्भाला तो उन्होंने पहाड़ के युवाओं को आड़े हाथों लेना शुरू कर दिया था । सभी लोग सुन रहे थे और लग रहा था कि सभी सिर हिलाकर मानो उनकी बात से सहमती भी जता रहे थे ।
हाथ में माऊथपीस लिए गुरूजी अब और अक्रामक हुए अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होने कहा कि आज केदारनाथ में 3 हजार से ज्यादा नेपाली मूल के युवा काम कर लाखों रुपया कमा रहे हैं, और यह पैसा नेपाल जा रहा है । जबकि हमारे पहाड़ के युवक पहाड़ से भाग रहे हैं । मैं भी पहाड़ के और चिंतकों के साथ बैठा चुपचाप सब सुन रहा था, लेकिन अब जैसे ही रिटायर्ड हो चुके अध्यापक ने जब नेपाल का जिक्र किया तो मुझसे रहा नही गया और सहा भी नहीं गया सो तपाक से मैंने भी उन्हें बीच मे ही टोक दिया, जिसके बाद गुरूजी ने भी अपना सम्बोधन बीच में ही रोक लिया …
मैंने उन्हें प्रणाम करते हुए कहा कि ……. आप यह बताइएगा कि आप पहाड़ के अच्छे खासे पढ़े लिखे व विभिन्न ट्रेड्स से प्रशिक्षित व डिक्री
धारी युवाओं को यह राय दे रहे हैं कि, वह में जाकर पत्थर तोड़ें और पैंसे कमाएं …. ?
*माफ कीजिए गुरुजी क्या आपने यही उम्मीद कभी अपने बेटों से भी की है …?
ऐसा तो नहीं हो सकता है कि आप अपने बच्चों को बैंगलोर या अमेरिका भेजने की सोचें और पहाड़ के अन्य युवाओं के प्रति ऐसा नजरिया रखें ।
मेरा उन्ही से सवाल था कि, गुरुजी जैसा कि आपने अपने सम्बोधन मे बताया था कि आप जीवनभर पहाड़ में ही रहे हैं, वहीं से रिटायर भी हुए हैं, आपकी पत्नी भी सरकारी सेवा में ही हैं और पहाड़ में ही कार्यरत हैं जो कि वह भी अगले वर्ष सेवानिवृत हो जाएंगी, आपके दो जवान लड़के भी हैं दोनों ने पहाड़ में ही पढ़ाई की और अब वह दोनों बाहरी प्रदेशों मे अच्छी नौकरी पर हैं जो आपके साथ नहीं रहते हैं ! तो गुरूजी यह बताइयेगा कि जब आपका पूरा जीवन ख़ुशी ख़ुशी पहाड में सरकारी सेवा करते हुए कट गया, बच्चे अच्छे से पढ़ लिख गए तो अब आपको पहाड़ क्यों बोझ लगने लगा है ? अब आपका देहरादून में क्या काम है ? जबकि आपने पूरी जिंदगी पहाड़ों मे ही बिताई है । और आप खुद ही कह रहे हैं कि मै और मेरी पत्नी दोनों स्वस्थ भी हैं । तो गुरूजी आपने क्यों पहाड़ से पलायन किया है ? गांव क्यों नहीं चले जाते ? मेरा इतना कहने मात्र से ही कुछ लोगों ने मुझे टोकने व रोकने की जोरदार कोशिस की, कि सम्मानित गुरुजी से ऐसे सवाल न किए जांय…! तो मेरा भी साफ कहना था कि अगर आपने मुझे भी इस चर्चा में शामिल होने के लिए बुलाया है तो आपको मेरी बातों को भी सुनना होगा । नहीं तो पलायन और पहाड़ की पीड़ा पर आए दिन गोष्ठियाँ होती रहेंगी और बे-फिजूल लोग माईक पर अपने-अपने गले यूं ही साफ करते रहेंगे । पलायन जैसे मुद्दे पर सालभर की दो चार गोष्ठियों में चिंता का चर्चा में बने रहेंगे । जो कि महज एक कोरी चिंता व कुछ लोगों के लिए सत्ता के गलियारों में अपना वजूद बानाए रखने का माध्यम मात्र बनकर रह जाएगा ।
गुरूजी ने अपने सम्बोधन में नेपाली मूल के मजदूरों का हवाला दिया, लेकिन हमें यह समझना होगा कि नेपाल का जो युवा (मजदूर) पत्थर तोड़ रहा है तो उसे उस पत्थर को तोड़ने का अभ्यास है, क्योंकि वह उसी परिवेश में पला बढ़ा भी है । जबकि हमारे पहाड़ के युवा का अभ्यास बचपन से ही पढ़ाई करने में रहा है । और मैं यह भी जोड़ना चाहूँगा कि पहाड़ का उत्तराखंड का युवा पढ़ा लिखा होने के बाबजूद पत्थर भी तोड़ रहा है । वह अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी जानता और समझता भी है । इसलिए पलायन के नाम पर जो लोग पहाड़ में हैं ही नहीं, और वह फिर भी पहाड़ के रहवासियों पर सवाल खड़े करते हैं वो भी सिर्फ एक दिन की चिंता में यह किसी भी दशा में स्वीकार नहीं किया जा सकता है ।
सच तो यह भी है कि उत्तराखंड में पहाड़ों से भारी संख्या में हो रहे पलायन को जरूरत या मजबूरी के बजाय फैशन कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । अब कई चिंतक लोगों को इस बात पर जरूर आपत्ति हो सकती है । लेकिन यह मेरा व्यक्तिगत मत है कि उत्तराखंड मे आज पलायन का फैशन भौतिकवादी ज्यादा हो गया है । इसे इस प्रकार से समझें … मसलन पलायन दो प्रकार का होता है, एक सुरक्षित तो दूसरा असुरक्षित –
1- सुरक्षित पलायन : इसके अंतर्गत व्यक्ति अपने घर गांव से दूर जाता है रोजी रोटी के लिए परन्तु उसका भावनात्मक लगाव अपने घर गांव से बना रहता है । वह लौट कर एक दिन गांव में बस जाता है और फिर उसके बच्चे रोजगार के लिए बाहर के शहरों में होते हैं । इस पलायन से चिंता की कोई बात नहीं है, यह सुरक्षित पलायन है ।
2- असुरक्षित पलायन :
यह वह पलायन है जिसके अंतर्गत व्यक्ति गांव छोड़ शहरी चकाचौंध में बसना चाहता है, इसे आप पलायन का फैशन भी कह सकते हैं । मसलन एक व्यक्ति पहाड़ में नौकरी कर रहा था फिर वह रिटायर हो गया और स्वस्थ भी है । उसके दो बेटे हैं जिनमें से एक पहाड़ी जनपद चमोली के उर्गम क्षेत्र में हेडमास्टर है, तो दूसरा जिला मुख्यालय गोपेश्वर कलक्ट्रेट (DM कार्यालय) में है । कुलमिलाकर कि इस परिवार पर बेरोजगारी या रोजी रोटी की जुगत करने जैसा कोई संकट भी नहीं है । यह सम्पन्न परिवार है जो पहाड़ों मे रोजगार पाया हुआ है और अच्छा खाशा वेतन भी सरकार से प्राप्त कर रहा है । लेकिन यह परिवार पहाड़ के गाँव या शहर को छोडकर छोड़ देहरादून में महज 150 – 200 गज के टुकड़े मे मकान बनाकर, देहरादून वाला बन बैठा है । जबकि आज भी यह परिवार नौकरी करने पहाड़ पर ही जाता है । सच्चाई यह भी है कि आज अधिकांश गांवों में बिजली सड़क पानी सब कुछ मौजूद है । और इसी तरह आज भी 90% वह लोग देहराडून में 150 से 200 गज का मामूली जमीन टुकड़ा खरीदकर बैठे हैं जो आज भी पहाड़ों पर रहकर सरकारी नौकरी कर रोजगार पा रहे हैं । फिर तो यह अवधारणा समाप्त हो जानी चाहिए कि पलायन का कारण बेरोजगारी है । इसलिए वर्तमान मे पहाड़ों से हो रहा यह पलायन जरूरत के बजाय एक फैशन वाला हो गया है । उत्तराखंड मे सरकारें जिस किसी भी दल की बने सबसे पहले उन्हें राज्य मे सरकारी सेवा प्राप्त लोगों की सेवा नियमावली में कुछ कठोर शर्तों को जोड़ा जाना बेहद जरूरी है । जिससे फैशन बनते पलायन पर रोक लग सके । लेकिन हमारे राजनेता भी अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकते । सरकार को चाहिए कि पहाड़ में अच्छी शिक्षा, चिकित्सा, यातायात के साधन सुलभ कराए व युवाओं के लिए नवीन रोजगार के संसाधनों को भी पहाड़ पर जुटाए । यह बात भी सच है कि हमारे नेताओं ने भी पहाड़ों को खाली करने व कराने में अहम भूमिका निभाई है । इस राज्य में अभी तक सरकारें चाहे भाजपा की रही हो या कांग्रेस की किसी ने भी पहाड़ या पहाड़ के रहवासियों के प्रति अपनी ईमानदार सोच को नही दर्शाया और इस राज्य में इन दोनों पार्टियों को बारी-बारी राज करवाने वाली पार्टी UKD सबसे ज्यादा दोषी रही है ।
पलयान के नाम पर उन समस्त पहाड़ी चिंतकों के लिए सुझाव :
1- सबसे पहले पहाड़ी चिंतक अपना व अपने बच्चों का नाम ग्राम सभा के भाग एक रजिस्टर में दर्ज करवाएं ।
2- पहाड़ में पलायन की चिंता करने वालों के परिवार के सदस्यों का नाम सबसे पहले उनके गांव के जन्म पुस्तिका मे हो । व किसी पारिवारिक सदस्य की मृत्यु हो जाने पर भी उसका नाम गाँव के मृत्यु रजिस्टर में अवश्य अंकित हो । व संबन्धित प्रमाण पत्र भी ग्राम सभा से प्राप्त किया हुआ हो ।
3- वोटर कार्ड व राशन कार्ड गांव के पते पर ही बनवाएं ।
4- गांवों में बंजर पड़ी भूमि का लेखा-जोखा जुटाएँ व संबन्धित भूमि की अपने नाम से किसान बही तैयार कराएं ।
5- दिवाली होली पर अपने-अपने गांव जाएँ और वहां पर त्योहारों को मनाये । या वार्षिक छुट्टियों में बच्चों के साथ एक एक माह आपने – अपने गाँव मे बिताएँ ।
6- खंडहर बन चुके अपने पैतृक भवनों की मरम्मत करें या परिवार बढ़ जाने की दशा में आधुनिक सुविधाओं युक्त दो दो कमरों के भवन निर्माण गाँव मे करें ।
7- गांवो में मौजूद पुस्तैनी जमीन का बंटवारा करें व परिवारों की संख्या बढ़ाएँ ।
तब जाकर पहाड़ के विकास या पलायन पर भाषण देंगे तो वह वाज़िब होगा । परंतु ऐसा नहीं हो सकता है कि आप और हम सब कुछ समेट कर देहरादून आ जाएं और फिर यहां से बेमतलब की चिंता करने लग जाएं । इस तरह की चिंताओं का सत्ता पर काबिज़ ढीटों पर भी कोई असर नहीं पड़ने वाला है । इसलिए चिन्ता करने वालों को पहले स्वयं को भी उदाहरण प्रस्तुत करने की जरूरत है ।
* शशि भूषण मैठाणी ‘पारस’
YOUTH ICON Yi National Creative Media Repot, 25.04.2016
कोई भी नौजवानो को न कोसे, क्योंकि वे मजबूर हैं गाँव छोड़ने को, उन्हें नौकरी की चिंता है, पहाड़ों में खेती होती ही कितनी है जो पूरे परिवार को चला सकें, और सबके पास होती भी नहीं, उन्हें सिर्फ दो वक्त की रोटी नहीं कमानी, परिवार पालना है, तो सबसे पहले उनके लिए गावों में ही रोज़गार की व्यवस्था हो ताकि वे गाँव छोड़ने को मजबूर न हों, और गाओं में ही बसे रहें, गांव जाकर मकान ठीक करना अलग बात है, और जीवन गुजारना अलग बात , सरकार बाकी बुनियादी सुविधाओं के साथ साथ सरकारी विभागों को गांव में ले जाकर वहां नौकरी की संभावनाएं बढ़ाये, रोजगार के अन्य अवसरों में मदद करे, फिर देखे, कितनी हद तक पलायन रुकता है ।।
यही बात तो मै लिख रहा हूँ कि आखिर किसी भी उस व्यक्ति को यह अधिकार किसने दिया जो पलायन कर मैदान मे पसर गया है और डबल्यूएच पहाड़ के पढे लिखे नौजवान युवाओं को पत्थर तोड़ मजदूरी करने की नसीहत दे रहा है ।
आपकी बात सही है मैठाणी सर हमे खुद को भी उद्धाहरण के रूप मैं प्रस्तुत करना होगा, किन्तु मैं पूर्ण रूप से इसमें सरकार की असफलता मानती हूँ राज्य के गठन के इतने वर्षो के बाद भी आज भी ये समस्या दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है।
सिर्फ इस विषय पर बात करने से या भाषण देने से कोई समाधान नही निकलेगा,यहाँ पर राज्य सरकार द्वारा ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है
Thanks. Maithani Jee. You’re right about your experience of Great Garwal & Garwali people
बहुत सुन्दर मैठाणी जी, किसी के लिए ये फैशन है तो किसी के लिए मज़बूरी आम लोग हों या कर्मचारी अपने बच्चों के लिए मूलभूत सुविधाओं प्रमुख रूप से शिक्षा, चिकित्सा, आवास, यातायात, सड़क, बिजली, पानी, सुरक्षा जैसे मुद्दे अहम् हैं जिनके कारण लोग गाँव छोड़ अपनी छमता अनुरूप प्लायन करने को मजबूर हुए हैं सारे समाधान की कुंजी एक ही है या तो न्याय पंचायत स्तर पर स्मार्ट न्याय पंचायत या स्माल स्मार्ट सिटी बनानी होगी या समस्त कर्मचारियों के लिए अनिवार्य चक्रवार स्थांतरण कानून और तैनाती स्थल के नजदीकी सरकारी स्कूल में अपने बच्चों को पढ़ाना अनिवार्य करना होगा बाकि सारे विकल्प व्यर्थ होंगे
बात सही है । पहाड़ के लोग अपने पहाड़ मे रहने का फायदा तो ले रहे है लेकिन पहाड़ मे रहना नही चाह रहे है। जब लोग गांव मे रहेंगे ही नही तो विकास की संभावना भी कैसे बनेगी। मेरा मानना यह है कि हम हर चीज़ के लिए सरकार का मुह देखते रहते है लेकिन हम कितना योगदान उसे बनाने मे दे रहे है। ये कभी नही सोचते।
चिंता अर चिंतन
कबेर तलक रेलू खाळी मंथन
अब मंथन कु बगत नि
चट करा कुछ जतन।
सुख छै: त रगर्याट किले
बिन तीसक् टपट्याट किले
जै पाड़े असन-आतुरिल
उन्द भाज्यां तुम
शैरों बटिन ते फर
चिंता अर चिंतन किले।
हिम्मत छ त आवा दों
बारामासी जुद्ध जुटयूं
तुम भी बोलां बिटवा दों
दुःख बिपदा को आतंक मच्युं
सुख की बंदूक चलावा दों।
द्वी दिनी मेहमान किले
पिकनिक तक ही पहाड़े सैर किले
अगर पलायन समझदां छां तुम त
घर की कुड़ी फर जाळा किले।
@ बलबीर राणा ‘अडिग’
बैरासकुण्ड चमोली
आज उत्तराखंड में पलायन एक गंभीर मुद्दा है। और इसके कारण भी अति गंभीर हैं। भावनात्मक रूप से कोई भी अपना गांव ,खेत और अपनों को छोड़कर नहीं जाना चाहेगा परंतु रोजी रोटी और और बच्चों के भविष्य और उनकी शिक्षा दीक्षा की चिंता पहाड़ के लोगों को पलायन के लिए मजबूर कर देती है। पलायन पर चिंता करने से ज्यादा पलायन रोकने के उपायों की चिंता ज्यादा करनी चाहिये हमें । आपके सुझाव बहुत अच्छे हैं । किंतु व्यवहारिक सुझाव ये है कि “सरकार की तरफ से हर न्याय पंचायत स्तर पर रोड हेड्स पर वहां के निवासियों को मूलभूत सुविधाएं प्रदान करें । जैसे कि अच्छे स्कूल , हॉस्पिटल,और रहने के लिए घर आदि प्रदान करे ताकि लोग अपने गांव ने खेती बाड़ी भी करते रहें और अपने ही गॉंव के पास बसे हुए satellite township में रहकर पलायन न कर पाए । यदि घर का कोई सदस्य फौजी है या नौकरी के लिए बाहर निकल भी गया तो परिवार की चिंता नहीं करेगा और अपनी फैमिली को वहां से लेकर नहीं जायेगा । ये एक सुझाव है यदि सरकार इस पर गंभीरता से सोचे तो पलायन को काफी हद्द तक रोक जा सकता है।
Playan nanhi ruk payega kyonki gaon mai suvidha nanhi hai lekin agar sarkar jaruratmand ko koi aarthik sahayta de to playan ruk sakta hai.bank se Lon lene ki formalities itani hai ki sun k hi aadmi pichhe hat jata hai.