Avaneesh Malasi : विकास ! आपको दिखा ? टूटते घर, छूटते पहाड़, एकाकी इन्सान, सभ्य लोगों के मध्य छूटती अपनेपन की भावना वर्तमान विकास के कुछ श्याहे पन्ने हैं ।Avaneesh Malasi : विकास ! आपको दिखा ? टूटते घर, छूटते पहाड़, एकाकी इन्सान, सभ्य लोगों के मध्य छूटती अपनेपन की भावना वर्तमान विकास के कुछ श्याहे पन्ने हैं ।

विकास ! आपको दिखा ? टूटते घर, छूटते पहाड़, एकाकी इन्सान, सभ्य लोगों के मध्य छूटती अपनेपन की भावना वर्तमान विकास के कुछ श्याहे पन्ने हैं : अवनीश मलासी

 

Avaneesh Malasi : विकास ! आपको दिखा ? टूटते घर, छूटते पहाड़, एकाकी इन्सान, सभ्य लोगों के मध्य छूटती अपनेपन की भावना वर्तमान विकास के कुछ श्याहे पन्ने हैं ।
टूटते घर, छूटते पहाड़, एकाकी इन्सान, सभ्य लोगों के मध्य छूटती अपनेपन की भावना वर्तमान विकास के कुछ श्याहे पन्ने हैं ।

वर्तमान परिपेक्ष में विकास जब कुछ नई परिभाषायें रच रहा है तो आवश्यक है, कि इन परिभाषाओं के मूल में निहित विकास कि अवधारणा को समझा जाये. समझा जाये कि विकास का मूल लक्ष्य क्या है. क्या विकास भौतिक साक्ष्यों जैसे सड़क, पानी, बिजली के रूप में सरपट दौड़ रहा है. या भौतिकता के इस मिथ्या आवरण में विकास अपने आप की आजादी चाहता है.
मेरा आंकलन है कि हम गहन चिंतन करें कि उन्नति का स्वाभाविक स्वरूप क्या होना चाहिए. विकास का शाश्वत स्वरूप कैसा होना चाहिए. क्यों वर्तमान में अपने अधिकारों की जंग कर्तव्यों पर हावी होने लगी है. हम सभी अपने अधिकारों को ले कर भ्रमित रूप से जागृत हो रहे है. हम अपनी जड़ों को खोद कर आज तथा-कथित विकास के बहाव से सराबोर तो हैं, किन्तु ये नहीं जानते कि ये राह जाती कहाँ है. मोहक चकाचौंध है. मनमोहक वातावरण का ये आभास गहन चिंतन के उपरान्त आशंकाओं से भरा हुआ प्रतीत होता है. हम इसके सतत और दूरगामी स्वरूप को देख कर भी अनदेखा करना चाहते हैं. तरक्की के इस महानगरीय स्वरूप में टूटते घर, छूटते पहाड़, एकाकी इन्सान, सभ्य लोगों के मध्य छूटती अपनेपन की भावना वर्तमान विकास के कुछ श्याहे पन्ने हैं. नये बन रहे समाज में रिश्ते WhatsApp और Facebook के आभासी प्रेम की अथाह गहराइयों में हों तो ऐसे में संस्कारों और मूल्यों कि उम्मीद खुद ही बेमानी हो जायेगी. हम श्रोतों के पानी से बोतल बंद पानी तक पहुँच गये हैं और जल्द ही सिलेंडर की साँस भी ले रहे होंगे. हमारे रिश्ते आज एक दुसरे के सुख दुःख में शामिल होने से लेकर एक फोन कॉल की औपचारिकता तक का सफ़र तय कर चुके है. लेकिन हम खुश हैं. या कहूँ कि क्या हम खुश हैं?
आज हम कंकरीट के पक्के रास्तों से तो गुजरना चाहते हैं. लेकिन हम अपने नगर अपने शहर या अपने गाँव में एक पुस्तकालय की कभी मांग नहीं करते. हम अपने बड़े होते बच्चों से चाहते हैं कि वो हम से वो रिश्ते निभाते रहें जिन रिश्तों को न हमने निभाया और न ही हम उनको रिश्तों कि एहमियत ही बता पाये…. पैर जमीं पर नहीं होंगे तो मजबूती कैसे मिलेगी. लेकिन पैर जमीं पे होंगे तो मिट्टी भी हमसे जुड़ना चाहेगी, हमे मजबूती देने के लिए. लेकिन आधुनिकता तो मिट्टी की खुशबू को भूल उसे गंदगी बताने का प्रयाश कर रही है. आज शायद हम उड़ तो रहे हैं लेकिन अपनी जड़ों से बहुत दूर अपने अस्तित्व की तलाश में. लेकिन हम खुश हैं. या कहूँ कि क्या हम खुश हैं?

By Editor

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