उत्तराखंड के गुनहगार कौन ? उत्तराखंड की हकीकत अर्थी से भी बदत्तर ! सभी दलों ने बारी-बारी छला है पहाड़ी जनमानस को ।
उत्तराखंड के सीमांत जिलों की आर्थिक हकीकत अर्थी से भी बदतर…. हां, नाबालिक ही तो है फिर भी तक़रीबन दो दशकों की दहलीज पर खड़ा है उत्तराखंड । कितने अभिभावकों ने गोद लिया है इसको और सबने अपने तरीके से इसके नाम ( उत्तराखंड-उत्तरांचल ) के साथ-साथ इसके जिस्म ( देहरादून-गैरसैंण ) से भी खिलवाड़ किया है । उत्तराखंड बना तो पहाड़ और पहाड़ी के लिए था लेकिन सदियों पुरानी कहावत है कि पहाड़ काट कर मैदान बनाये जाते रहे हैं ।
पहाड़ काट, मैदान बनाने की कहावत शायद कहावत नहीं इतिहास का एक अक्श है जिसका प्रतिबिम्ब वर्तमान में दिखाई दे रहा है, क्योंकि सूबे की सत्ता पर काबिज रहे सभी सियासी दल और उनके हुक्मरानों ने पहाड़ को काट मैदान बनाने का भरकस प्रयास किया है ।
यदि ये लोग पहाड़ की जमीनी हकीकत से वाकिफ होते तो पहाड़ की राजधानी पहाड़ में बनाए जाने की मांग खत्म हो गयी होती । आज दो दशक की दहलीज पर खड़े होकर पहाड़ी जिलों की तुलना में अस्थायी राजधानी देहरादून में समृद्धि का ग्राफ काफी तेजी से बढ़ता जा रहा है । लेकिन उत्तरकाशी , पिथौरागढ़ और चमोली जैसे सीमांत जिलों में गरीबी और बेरोजगारी का ग्राफ प्रश्नात्मक चिह्न के दायरे में है। यदि सियासी सूक्ष्मदर्शी से उत्तराखंड के समस्याओं के सुक्ष्मजीवी दर्द को देखा जाये तो कि उत्तराखंड के पर्वतीय भूभाग के हालातों में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है। प्रदेश के मैदानी और शहरी जनपदों की तुलना में सीमांत पहाड़ क्षेत्र के लोग ज्यादा गरीब हैं और खुशहाल जिंदगी की तलाश में गांव छोड़ रहे हैं। अंधकाररूपी रोशनी में जो तस्वीर दिखाई दे रही है, वह सचमुच पहाड़-मैदान और शहर-गांव के बीच विकास की गहरी और चौड़ी होती जा रही खाई को एक ऐसी कहानी बयान कर रही है, जो पहाड़ के भविष्य की अंधकारमय सुबह और उसपर आर्थिक तंत्र के अर्थी को लाधने मात्र है । पहाड़ – मैदान और शहर – गांव (वैकल्पिक) के बीच विकास की तस्वीर पर गौर करें तो सीमांत जिला उत्तरकाशी, टिहरी ,अल्मोड़ा, पौड़ी, बागेश्वर, चम्पावत, चमोली व पिथौरागढ़ में बेरोजगारी का ग्राफ इतना शून्य स्तर पर आ गया है कि पहाड़ में 60 से 70 फीसदी जनसँख्या ऐसी रह गयी है, जहाँ रोजगारी की मासिक औसत आय पांच हजार रुपये से भी कम है । जबकि मैदान में रोजगार के स्तर की बात करें, तो रोजगारी का औसत 50 से 60 फीसदी जनसँख्या ऐसी है जहाँ मासिक औसत आय पांच हजार रुपये से अधिक है ।
यदि इसी प्रकार सदूर पहाड़ में बेरोजगारी का ग्राफ बढ़ता रहा तो वर्तमान में पहाड़ काट मैदान बनाने वाली कहावत का प्रतिबिम्ब मात्र प्रतिबिम्ब नहीं बल्कि एक जीता जागता प्रमाण होगा । क्योंकि जिस प्रकार गांव वीरान, उजाड़ हो रहे हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में युवाओं का अकाल पड़ गया है । अनेकों गांव में किसी बुजुर्ग की अर्थी के लिया चार कंधे तक नहीं रह गये हैं । पहाड़ की इस आर्थिक हालात की मुख्य वजह रोजगार, शिक्षा और बेहतर जीवन है, जिसके लिए सरकार को खुद के सरोकार को छोड़ पहाड़ के प्रति सरोकार करना ही पड़ेगा वरना उत्तराखंड के सीमांत जिलों की आर्थिक हकीकत अर्थी से भी बदतर हो जाएगी । इसलिए दरख्वास्त है हमारे नेताओं से कि …….
तुम आसमां की बुलंदी से जल्द लौट आओ…हमें जमीनी हकीकत पर कुछ बात करनी है……
नहीं तो यूं ही एक दिन ………….
कब्रगाह बन जाएगी पूर्वजों की जोड़ी हुई यह विरासत …..
Bilkul steek lekh hai sir,, in aawara netawon ke apne hi ghar. Ka. Thikana nahihai ,,, ye kya dard samjhenge. Pahadon me khali hote gharon ka banjar hoti jameeno ka… Achha hota ki devbhoomi ko. Union terotery. Ka. Darja mil. Jaye. Jab. Chunaw se hayaan ka bhala nahi. To kiyon yahaan ki janta pe chunaw ka bojh…
ये दोबारा जेल जायेगा पक्का
आलोचना तो हर कोई अपने अपने हिसाब से करता रहता है परन्तु समस्यायों से निपटने का कोई ठोस बिन्दुवार हल नहीं दे पाता है। सिर्फ राजधानी बदलने से कोई चमत्कार होने वाला नहीं है।