Games without field : सुना है प्रदेश में खेल महाकुंभ हो रहा है। आपने भी सुना है क्या ?
खेल महाकुंभ तो ठीक है पर खेलें कहां…?
नौ से 30 नवंबर तक न्याय पंचायत से लेकर जिला स्तर तक की प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाना है। ठीक है सरकार ने इस दिशा में कदम बढ़ाए, लेकिन सवाल खेल महाकुंभ की तैयारियों को लेकर है। पहला सवाल न्याय पंचायतों में खेल मैदानों का है। 2011 में न्याया पंचायतों में पाइका योजना के तहत युवा कल्याण विभाग को मिनी स्टेडियम बनाने के लिए बजट दिया गया। कुछ जगहों पर मैदान बने भी, लेकिन वह मानकों के अनुरुप नहीं बने। कुछ न्याय पंचायतें ऐसी भी हैं, जिनमें बजट तो खपा दिया गया, लेकिन मैदान एक भी नहीं बना। मामले की जांच भी हो चुकी है, लेकिन जांच रिपोर्ट कहां गई। उसका आज तक पता नहीं चल पाया। दूसरा यह कि
सरकार ने इस खेल महाकुंभ में ताइक्वांडो, कराटे, जूडो, टेबिल टेनिस और फुटबाल जैसे खेलों के आयोजन का फरमान जारी किया है। हैरत की बात यह है कि प्रदेश के दूरस्थ स्कूल तो दूर राजधानी के स्कूलों में ताइक्वांडो, जूडो की मैट तक नहीं है। बाक्सिंग रिंग किसी भी न्याय पंचायत में नहीं है। जिला स्त्तर पर जरुर इसकी सुविधा है। फुटबाल खेलने का क्रेज तो है, लेकिन बगैर मैदान के फुटबाल कैसा खेला जाता होगा, यह मुझे नहीं पता। टेबिल टेनिस का भी यही होल है। न्याय पंचात दूर की बात जिला मुख्यालयों में भी टेबिल टेनिस खेलने के लिए रैकेट और बाल तो मिल जाएंगे, लेकिन बिन टेबिल खेल कैसे होगा। यह भी समझ से परे है।
खेल मेरा पसंदीदा विषय रहा है। जिन सवालों को मैंने अपने पत्रकारिता के अनुभव के दौरान महसूस किया। उन्हीं पर बात कर रहा हूं। मेरा सवाल आयोजन पर नहीं। सवाल यह है कि सरकार को खेलों का आयोजन कराने से पहले व्यवस्थाएं जुटाने पर फोकस करना चाहिए था।
देहरादून में बैठकर मंत्री जी ने अधिकारियों को निर्देश दिए। फार्म भरने का परफार्मा भी बनाया गया, लेकिन वह फार्म न तो न्याय पंचायतों के पास पहुंचा और न स्कूलों को मिला। युवा कल्याण के लिए जिस विभाग को बनाया गया। उसका आज तक खुद का ही कल्याण नहीं हो सका। उससे किसी के कल्याण की आस लगाना बेमानी होगा। इस आयोजन में भी वह केवल दर्शक की भूमिका है। जहां तक बात इस खेल महाकुंभ से खेल प्रतिभाओं को निखारकर उनको भविष्य के लिए तैयार करने का है। उस पर भी मुझे शक है।
उसका कारण यह है कि 2016 में खेल विभाग ने राष्ट्रीय खेलों की तैयारी के बहाने पूरे प्रदेश में ट्रेनिंग कैंप लगाने का खाका तैयार किया था। हल्द्वानी और देहरादून में इसकी हाई लेवल बैठक भी की गई। खेल संघों और खेल विभाग को खिलाड़ियों के नाम छांटकर देने के निर्देश दिए गए, लेकिन हुआ कुछ नहीं। मैने उन बैठकों में बैठकर पूरी प्रक्रिया को समझा भी था। इसलिए दावा भी मजबूती से कर रहा हूं।
खेल संघ निरंकुश हैं। उनको न तो सरकार का भय और न संघों के पदों पर बैठे पदाधिकारी अपनी अंतरआत्मा की आवाज सुन पा रहे हैं। स्वीमिंग एसोसिएशन को ही ले लीजिए। तीन-तीन साल हो गए। खिलाड़ियों को अब तक स्टेट चैंपियनशिप के मेडल और प्रमाण पत्र ही नहीं मिले। 2016 दिसंबर की नेशनल चैंपियनशिप में हाल यह रहा कि प्रदेश का अपना बैनर तक खिलाड़ियों के पास नहीं था। स्वीम सूट होना तो दूर की बात। नौबत यहां तक आ गई थी कि टीम को बाहर करने का फरमान सुना दिया गया। टीम के साथ अभिभावक ही टीम मैनेजर थे और वही कोच भी। रुद्रपुर के सुनील कुमार ने अपने खर्च से पूरी टीम के लिए किट खरीदी, तबजाकर टीम को खेलने दिया गया।
ताइक्वांडो में उत्तराखंड ने बेहतरीन खिलाड़ी दिए। बागेश्वर के राजेंद्र इंटर नेशनल खिलाड़ी हैं। इतना ही नहीं अकेले बागेश्वर जिले में ही करीब 300 ताइक्वांडो खिलाड़ी हैं। इनमें से 30 खिलाड़ी राष्ट्रीय स्तर पर पदक जीत चुके हैं। कुछ उदाहरण बहुत कुछ समझने के लिए काफी हैं। खिलने से अगर सरकार और खेल विभाग को कुछ समझ आने लगे तो मैं पूरी किताब लिखने को तैयार हूं। बहरहाल मेरा सरकार को एक ही सुझाव है कि जो भी कराना है या ढिंडोरा पीटना है। पहले उसकी पूरी तैयारी कर लें। बरना खेल प्रतिभाएं ठगी जाती रहेंगी। जो बचेंगे वह दूसरे प्रदेशों से खेलकर आपको आइना दिखाने का काम करेंगे।
क्रिकेट में 12 खिलाड़ी ऐसे हैं, जिन्होंने दूसरे राज्यों में जाकर खुदको साबित किया है। एथलेटिक्स में सरकार सेना और पुलिस के खिलाड़ियों को अपना बताकर इतराती है। उम्मीद है सरकार और सरकारी सिस्टम कुछ जागेगा।