Garhwali, Kumauni Academy : उत्तराखंड में अब तक सरकारें जो न कर सकी, उसे करेगी अब दिल्ली सरकार । उत्तराखंडियों को मिलेगा दिल्ली में सम्मान । दिल्ली में होगी गढ़वाली – कुमाउनी अकादमी की स्थापना ।
“कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी’ यह कहावत सम्पूर्ण विश्व में किसी देश के लिए नहीं एकमात्र भारत के लिए ही है. भारत में भाषाओँ का मेला है जिसमे भाषाएँ, उप-भाषाए, बोली और उप-बोलियाँ सभी सम्मिलित हैं. 1961 की जनगणना के बाद 1652 मातृभाषाओं का पता चला था जिसके बाद इस तरह की कोई सूची नहीं बनाई गयी थी. भाषाएँ तभी तक जीवंत रहती है
जब तक उनका साहित्य संरक्षण किया जाता रहें और उनके विकास हेतु प्रतीकात्मक कार्य किये जाते रहें. जैसे एक अत्यंत सराहनीय कार्य दिल्ली सरकार द्वारा किया गया है. हाल ही में दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया और पर्यटन और संस्कृति विकास मंत्री कपिल मिश्रा द्वारा ये घोषित किया गया है कि जल्द ही दिल्ली में उत्तराखंड भाषाओँ के संरक्षण (गढवाली और कुमाउनी) हेतु भाषा अकादमी गठन किया जायेगा.
दिल्ली में उत्तराखंड साहित्य अकादमी का गठन होना साहित्य के लिए अत्यंत गौरव की बात है. उत्तराखंड में भी इस मुद्दे की कभी खासा ध्यान नहीं दिया गया है. उत्तराखंड राजाओं के संस्कृत मोह ने ही उत्तराखंड की स्थानीय गढ़वाली और कुमाउनी भाषा को कभी तवज्जो नहीं दी, जबकि लोक मानस में यहाँ की स्थानीय बोली निरंतर बोली जाती रही हैं. उत्तराखंड में सोलह सो सदी के बाद बोलियों का देवनागरी लिपि का शुद्ध रूप प्रतिपादित होता है. सोलह सो सदी के बाद सामाजिक चेतना उभरने लगी
थी और साहित्य की एक नयी धारा उभर कर आने लगी. हालाँकि उत्तराखंड राज्य में उत्तराखंड भाषा संस्थान और उत्तराखंड हिंदी अकादमी की स्थापना २००९ में की गई थी. हिंदी और अन्य भाषाओँ का प्रचार और प्रसार, शोध, अनुवाद, सरकारी गजट के अनुवाद आदि कार्य इन संस्थाओं द्वारा किये जाते हैं. परन्तु गढवाली और कुमाउनी भाषा के साहित्य संरक्षण के लिए विशेष कार्य नहीं किये !
कुमाउनी भाषा जिसे राष्ट्रीय स्तर पर उप-भाषा का दर्जा प्राप्त है जिसकी अनेक उप-बोली हैं जैसे- कुम्ययां, सौर्याली, सीराली, अस्कोती, खस पराजिया, पछाई, फलदा कोटी, गंगोई, जौहारी, गोरखाली बोली, आदि. इसी तरह गढवाली भाषा जिसे मैक्समूलर ने अपनी पुस्तक साइंस ऑफ़ लैंग्वेज में गढ़वाली को प्राकृतिक भाषा का रूप माना है. भाषा विशेषज्ञ डॉ गिर्यसन ने गढ़वाली भाषा को आठ भागों में विभक्त किया है- श्री नगरी, नागपुरिया, द्सौल्या, बधाणी, राठी, मांझ, कुमाइयां, सलानी, तिह्र्याली आदि. अब आप ये खुद से जान सकते हैं उत्तराखंड साहित्य की इस विशाल धरोहर को एक संगठन की दरकार तो जरुर है.
उत्तराखंड साहित्य अकादमी की स्थापना से सम्भवतः उत्तराखंड साहित्य को एक नयी पहचान मिलेगी और यह भी पूर्ण सम्भावना है कि सविंधान की आठवी अनुसूची में उत्तराखंड की भाषाओँ को भी स्थान प्राप्त होगा. इसके साथ-साथ उत्तराखंड साहित्यकार जैसे मोलाराम, हरिराम धस्माना, सत्यनारायण रतूड़ी, भजन सिंह, भगवती प्रसाद पांथरी, घनश्याम रतूड़ी, गुमानी पन्त, कृष्ण पाण्डेय, चिंतामणी जोशी, डॉ यशोधर मठपाल आदि की कृतियों को एक नया संरक्षण प्राप्त होगा. यह भविष्य उन्मुखी कदम होगा !