Indresh Maikhuri : आज-कल घाव गिनकर पद दिए जा रहे हैं……!
श्रीनगर। उत्तराखंड राज्य बने 16 साल पूरे हो रहे हैं. इन 16 सालों में राज्य की जैसी हालत हुई है, उसे देख कर प्रख्यात व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की व्यंग्य कथा-“लंका विजय के बाद” बरबस आँखों के सामने आ जाती है. इस कथा में परसाई लिखते हैं कि लंका जीत कर जब राम अयोध्या लौटे तो वानरों ने उत्पात मचाया कि उन्हें भी राज्य में पद चाहिए और पद उनके शरीर पर लगे घावों के अनुरूप चाहिए. इस व्यंग्य कथा के अनुसार अयोध्या में वानरों के घाव गिनने के लिए घाव पंजीयन कार्यालय खोला गया. बकौल परसाई-“दूसरे दिन नंग-धड़ंग बानर राज्य-मार्गों पर नाचते हुए घाव गिनाने जाने लगे। अयोध्या के सभ्य नागरिक उनके नग्न-नृत्य देख, लज्जा से मुँह फेर-फेर लेते.”
आगे परसाई जी लिखते हैं-“इस समय बानरों ने बड़े-बड़े विचित्र चरित्र किए. एक बानर अपने घर में तलवार से स्वयं ही शरीर पर घाव बना रहा था. उसकी स्त्री घबरा कर बोली, ष्नाथ, यह क्या कर रहे हो? बानर ने हँस कर कहा, प्रिये , शरीर में घाव बना रहा हूँ. आज-कल घाव गिनकर पद दिए जा रहे हैं. राम-रावण संग्राम के समय तो भाग कर जंगलों में छिप गया था. फिर जब राम की विजय-सेना लौटी, तो मैं उसमें शामिल हो गया. मेरी ही तरह अनेक बानर वन से निकलकर उस विजयी सेना में मिल गए. हमारे तन पर एक भी घाव नहीं था, इसलिए हमें सामान्य परिचारक का पद मिलता. अब हम लोग स्वयं घाव बना रहे हैं.
स्त्री ने शंका जाहिर की, परन्तु प्राणनाथ, क्या कार्यालय वाले यह नहीं समझेंगे कि घाव राम-रावण संग्राम के नहीं हैं? बानर हँस कर बोला, प्रिये, तुम भोली हो। वहाँ भी धांधली चलती है. स्त्री बोली, ष्प्रियतम, तुम कौन सा पद लोगे?
बानर ने कहा, प्रिये, मैं कुलपति बनूँगा। मुझे बचपन से ही विद्या से बड़ा प्रेम है. मैं ऋषियों के आश्रम के आस-पास मंडराया करता था. मैं विद्यार्थियों की चोटी खींचकर भागता था, हव्य सामग्री झपटकर ले लेता था. एक बार एक ऋषि का कमंडल ही ले भागा था. इसी से तुम मेरे विद्या-प्रेम का अनुमान लगा सकती हो. मैं तो कुलपति ही बनूँगा.
पिछले 16 सालों से इस राज्य को चला रहे हैं, वे भी उक्त कथा के वानरों के तरह ही राज्य की पूरी लड़ाई के दौरान कहीं नहीं थे. अब वे फर्जी घाव दिखा कर राज्य पर राज कर रहे हैं. विडम्बना यह है कि असली घाव वाले उनकी चिरौरी ही कर रहे हैं कि उनके घावों को भी मान्यता दी जाए.परसाई जी इन फर्जी घाव वाले वानरों के कारनामों के बारे में लिखते हैं कि “याज्ञवल्क्य तनिक रुककर बोले, हे मुनि, इस प्रकार घाव गिना-गिनाकर बानर जहाँ-तहाँ राज्य के उच्च पदों पर आसीन हो गए और बानर-वृत्ति के अनुसार राज्य करने लगे। कुछ काल तक अयोध्या में राम-राज के स्थान पर वानर-राज ही चला. भारद्वाज ने कहा, मुनिवर, बानर तो असंख्य थे, और राज के पद संख्या में सीमित। शेष बानरों ने क्या किया?
याज्ञवल्क्य बोले, हे मुनि, शेष बानर अनेक प्रकार के पाखण्ड रचकर प्रजा से धन हड़पने लगे। जब रामचंद्र ने जगत जननी सीता का परित्याग किया, तब कुछ बनारों ने सीता सहायता कोष खोल लिया और अयोध्या के उदार श्रद्धालु नागरिकों से चन्दा लेकर खा गए.
उत्तराखंड के बीते 16 सालों की दास्ताँ भी कुछ-कुछ ऐसी ही है कि फर्जी घाव वाले न केवल चंदा, बल्कि रेत ,बजरी,नदी, जंगल,पहाड़ सब खाने पर उतारू हैं. परसाई जी की कथा जरुर काल्पनिक है, परन्तु उनकी कथा के वानर त्यों को उत्तराखंड में आप साक्षात घटित होता हुआ देख सकते हैं.
परसाई जी की काल्पनिक कथा (जो भ्रष्ट,पतित और अवसरवादी राजनीति पर व्यंग्य ही है) और उत्तराखंड की दास्तान में एक अंतर यह है कि वहां शासन करने वाला राम सद्चरित्र है. लेकिन उत्तराखंड की दास्तान में तो शासकों की पूरी फौज ही फर्जी घाव बनाने वाले वानरों की प्रजाति की है, जो लड़ाई के वक्त जंगलों में जा छिपे थे. परसाई जी की कथा के वानरों के पतितपने पर हम ठहाका लगा कर हंस भी सकते हैं पर उत्तराखंड की दास्तान और उसके वानरों पर तो हंस के काम नहीं चलेगा. यहाँ तो खेतों में से भी बंदरों को खदेड़ना है और राज्य पर कब्जा जमाये हुए परसाई की कथा वाले वानरों की प्रजाति को भी खदेड़ना होगा. तभी यह राज्य मनुष्यों के रहने लायक बचेगा.
साभार : इंद्रेश मैखुरी ।