Lack of alternatives : ऑपसन् की कमी से जूझती जनता , उत्तराखंड की कुर्सी किसमें कितना है दम ।
उत्तराखंड में चुनावों का आगाज़ शुरू होने वाला है. सभी राजनीतिक पार्टियाँ अपने-अपने दांव पेंच से सत्ता को हासिल करने की कवायद में शामिल हो चुके हैं. उत्तराखंड राजनीति में दो शूरवीर पार्टी ही नजर आती हैं भाजपा और कांग्रेस.
भाजपा राजनीति में तो यह भी तय नहीं कि उनका दावेदार कौन होगा या मुखिया पद के लिए किसको आगे लायें. भले ही बीजेपी ने उत्तराखंड में “परिवर्तन यात्रा” का बिगुल बजा दिया हो लेकिन शाह टीम के बाशिंदे भाजपा प्रदेश अध्यक्ष श्री अजेय भट्ट की अजेयता यह सिद्ध ही नहीं कर पा रही कि उत्तराखंड की मुख्यमंत्री बनने की दौड़ में किसको शामिल किया जायें? अगर सीधी-सपाट बात की जाये प्रदेश राजनीति की तो बीजेपी पार्टी के पास कोई भी ऐसा प्रदेश नेता नहीं जो मुख्यमंत्री का पक्का दावेदार हो. बल्कि चुनाव प्रचार के लिए राष्ट्रीय नेताओं का सहयोग लिया जा रहा है.
उत्तराखंड की सत्ताधारी और राजशाही कांग्रेस भी फिर से सत्ता पाने की दौड़ में पीछे नहीं है. बल्कि यूँ कहें कि बड़ी तार्किक रणनीति के साथ रावत टीम ने चुनावी बिगुल बजा दिया है. यह तो सिद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं कि उत्तराखंड के राजनीतिक घटनाकर्मों में मुख्यमंत्री हरीश रावत ने किस प्रकार अपनी सफलता को सिद्ध किया. रावत टीम का पलड़ा भारी है तभी तो बीजेपी की “घर तोड़ राजनीति” के बावजूद भी मुख्यमंत्री हरीश रावत ने अपनी सत्ता सिद्ध कर दी थी. उत्तराखंड राजनीति संकट के दौरान राष्ट्रपति शासन के जरिये भाजपा की सरकार बनाने का प्रयास संविधान की आत्मा के कितना खिलाफ था. बस आगे क्या कहा जाये अब?
अमित शाह की प्रोफाईल और रावत की प्रोफाईल को मजबूती की तराजू में तोला जाए तो इस बात में कोई संदेह नहीं है कि मुख्यमंत्री हरीश रावत की राजनीति रणनीति अमित शाह से ज्यादा भारी रहती हैं. हरीश रावत ने अपनी राजनीति की शुरुआत ब्लॉक स्तर से की, जब वे ब्लॉक प्रमुख बने। इसके बाद वे जिला अध्यक्ष बने। इसके तुरंत बाद ही वे युवा कांग्रेस के साथ जुड़ गए। लंबे समय तक युवा कांग्रेस में कई पदों पर रहते हुए जिला कांग्रेस अध्यक्ष बने. मार्च 1990 में राजभाषा कमेटी के सदस्य बने। 1999 में हरीश रावत हाउस कमेटी के सदस्य बने। 2001 में उन्हें उत्तराखंड प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। 2002 में वे राज्यसभा के लिए चुन लिए गए, 2009 में वे एक बार फिर लेबर एंड इम्प्लॉयमेंट के राज्यमंत्री बने। वर्ष 2011 में उन्हें राज्यमंत्री, कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण इंडस्ट्री के साथ ससंदीय कार्यभार सौंपा गया. उसके बाद से उत्तराखंड सत्ता की बागडोर अपने हाथों में सम्भाल ली है जो रुकावटों के बावजूद भी बदस्तूर ज़ारी है.
चुनावों की जीत मजबूत टीम लीडर की रणनीति पर ही निर्भर करती है. अब आप खुद से यह तय कर सकते हों कि उत्तराखंड के आगामी चुनावों के लिए कौन कितना तैयार है और किसमें कितना है दम?
Copyright: Youth icon Yi National Media, 17.12.2016
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