Mai Pahari hun : “वह बात जो मुझे पहाडी़ होने का एहसास दिलाती है”
मैं राठ़ क्षेत्र का रहने वाला हूं जो कि उत्तराखंड का सुदूरवर्ती पौडी जिले का हिस्सा है । राठ़ क्षेत्र का जीवन कितना कठिन एवं परिश्रम भरा हुआ है इस बात का एहसास मुझे तब हुआ जब मुझे दादा जी के साथ खरक जाने का अवसर मिला । दरअसल राठ़ क्षेत्र के लोगों की आजीविका कृषि एवं पशुपालन पर निर्भर करती है । अगस्त -सितंबर के मास में गांव के आसपास की घास खत्म हो जाती है और मवेशियों के लिए चारा मुहैया कराना एक चुनौती बन जाता है परंतु इस समस्या का समाधान भी राठ क्षेत्र के लोगों ने अपने परिश्रम के बलबूते बहुत सालों पहले ही ढूंढ लिया था ।
राठ क्षेत्र में मेरा गांव नौडी पड़ता है और यहां घास एवं लकड़ी लाने के लिए ग्रामीणों को न्यूनतम 10 किलोमीटर का सफर तय करना होता है । खेती-बाडी के साथ हर दिन इतनी दूरी तय करना संभव नहीं हो सकता है इसलिए गांव के मर्द मवेशियों को साथ लेकर कुछ महीनों के खरक चले जाते हैं । खरक घनघोर जंगलों के बीच में घास के मैदान होते हैं जहां पशु एवं पशुपालक एक ही छत के नीचे कुछ महीने व्यतीत करते हैं ।
आज से लगभग 11 वर्ष पूर्व जब मैं तब तीसरी कक्षा में था तब पहली बार मुझें दादाजी के साथ खरक जाने का मौका मिला । मजोली बनाणी और सौंठ इन तीन गाँवों से गुजरते हुए लगभग 10 किलोमीटर का पैदल सफर तय करते हुए हम खरक पहुंचे । जब बाहर से ही खरक का ढाँचा देखा तो यह गाँव की गौशाला की तरह ही था परंतु अंदर जाने पर पता चला कि यह दो हिस्सों में बिना विभाजक दीवार के बँटा हुआ था । एक हिस्सा मवेशियों के लिए और दूसरा पशुपालकों के लिए था । यह खरक हमारा अपना नहीं था यह मेरे रिश्तेदार का था लेकिन इसमें दो परिवारों के मवेशियों और पशुपालकों के ठहरने के लिए पर्याप्त स्थान था । इस खरक में मेरे दादा जी स्वर्गीय श्री वेणीराम धस्माना और ताऊ जी जिनका वह खरक था श्री इश्वरी दत्त चमोली यहां ठहरने वाले थे। दो रातों के लिए मैं भी यही रुकने वाला था। यह मेरे जीवन का एक अलग एहसास था । घनघोर जंगल और जंगली जानवरों के बीच रात गुजारना मेरे लिए बड़ा ही उत्साहवर्धक अनुभव था । दरवाजे पर रात को बाघ की दस्तक आम बात थी । पहली रात गुजारने के बाद पहली सुबह की शुरुआत चिड़ियों की चहचाहट और हिमालय से आती भी हुई ठंडी हवाओं के साथ हुई; लेकिन उस सुबह को और भी यादगार बनाती है नाश्ते की मक्खन और रोटी ।
मवेशियों को सुबह ही खोल दिया जाता था और वह खुद ही एक झुंड के साथ जंगल में घास चरने के लिए चले जाते थे । झुंड में रहने की वजह से बाघ का हमला करना लगभग असंभव हो जाता था । मवेशियों के जाने के कुछ वक्त बाद ही दादा जी कुल्हाडी लेकर लकडी के लिए जाने लगे तो मैं भी साथ चल दिया । घनघोर और डरावने जंगल में एक छोटी सी आवाज भी मेरा ध्यान अपनी ओर खींच लेती परंतु दादाजी के साथ होने के कारण मुझे डर नहीं लग रहा था । दादाजी ने एक गिरे हुए पेड़ से दो लकड़ियां काटी जिन्हें राठी भाषा में ‘गिण्डका’ कहते हैं । दादाजी की लकड़ी मेरी लकड़ी के मुकाबले काफी मोटी थी । मैं उस लकड़ी कोें गिराकर, पलटाकर ला रहा था । परंतु यह ऐसा क्षण था जो कि मुझमें स्वाभिमान जगा रहा था और एक पहाड़ी होने का गर्वमान एहसास दिला रहा । खरक तक लकडी़ लाते हुए लगभग शाम ढल चुकी थी । तब तक मवेशी भी लौट आए थे और चौखट पर इंतज़ार कर रहे थे । रात को खाने के साथ खीर का मजा लेते हुये इस तरह पूरे दिन का व्यतीत होना बडा ही रोमंचकारी था । अगले दिन मां लकड़ी ले जाने के लिए खरक आने वाली थी और मुझे भी मां के साथ वापस जाना था। मैं बहुत उत्साहित था की मां को जंगल से खुद लाई भी लकड़ी को दिखाऊंगा और माँ के अाने का इन्तजार करते हुए सो गया ।
खरक में अगले दिन की शुरुआत एक बड़ी घटना के साथ हुई । जब हम सुबह नाश्ता कर रहे थे तो तभी वहां एक शख्स आ पहुंचे जो कि खरक की लकड़ियों की तलाशी ले रहे थे । वह हरी लकड़ियां ढूंढ रहे थे । पता चला कि दरअसल वो पटवारी साहब थे और तहकीकात कर रहे थे कि कहीं किसी ने कोई हरा पेड़ तो नहीं काटा । हमारे खरक में तो सारी सूखी लकडी थी । दादा जी और ताऊ जी के कहने पर पटवारी साहब ने हमारे साथ नाश्ता किया और चाय की चुस्कियां ली । हर चाय की चुस्की के साथ मेरे दिमाग में एक ख्याल आ रहा था कि वाकई कानून के हाथ लंबे होते हैं । यह मैंने प्रत्यक्ष देख लिया था कि पटवारी साहब 15-20 किलोमीटर पैदल चलकर खरक पहुंचे थे । थोड़ी देर में माँ भी खरक में पहुंच गई और सबसे पहले मैंने वह लकड़ी मां को दिखायी फिर मां और मैं गांव की और चल पड़े । दो दिन खरक में गुजारने का अनुभव मेरे जीवन का सबसे मीठे अनुभवों में से एक अनुभव है जो मुझे पहाड़ी होने का एहसास कराता है और दादा जी की याद दिलाता है ।
*योगेश धस्माना
Copyright: Youth icon Yi National Media, 01.09.2016
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बहोत बढ़िया
shabdon ka steek istemal or ek acha anubhav ….bhut badhiya
योगेश धस्माना जी आपका वृतांत सत्य है, हर व्यक्ति के बसका नहीं है पहाड़ों पर जीवन व्यतीत करना।
Bhut khub