Non-Gairsain : प्रसव पीड़ा से कराहता पहाड़: क्या होगी सुबह ? बनती बिगड़ती पहाड़ की भाग्य रेखा ।

* या यूं कहें कि सियासत अनाड़ी- ठगे गये पहाड़ी ! 

* और फिर गैर हो गया गैरसैंण, वैसा ही अकेला और अनाथ…..

 

हिमांशु पुरोहित । Himanshu Purohit । youth icon media । news । report । Yi award । shashi bhushan maithani paras । यूथ आइकॉन । शशि भूषण मैठाणी पारस । Avikasit Bhroon Gairsain : शहीदों के रक्त से संचित और आज की सियासत का एक अविकसित भ्रूण "गैरसैंण" 
हिमांशु पुरोहित । 

पुरानी कहावत है कि चार दिन की चांदनी, फिर अंधेरी रात । जहां चंद रोज पहले गैरसैंण में नेताओं का जमावड़ा लगा हुआ था । बंद कमरे के भीतर राज्य के अगले एक साल का भी भविष्य पढ़ा जा रहा था । पक्ष-विपक्ष में सवाल-जवाबों का खेल चल रहा था, ऐसा जैसे देवरानी-जिठाणी आपस में कुछ बतिया रही हों, शायद एक दुसरे की गलती बयां कर रही हों ? या शायद बाहर मोहल्ले भर में हो रहे शोर शराबे पर ताने मार रहो हों…वगैरा-वगैरा ?

भावनात्मक शब्दों में यूं भी कह सकते हैं गैरसैंण फिर से गैर हो चूका है  । देवलीखाल से भराडीसैण का रास्ता फिर से तन्हा सा हो गया है  । गैरसैंण के रामलीला मैदान पर फिर से कुछ बुजुर्ग महिलाएं राज्य आन्दोलन किए गीत गुनगुनायेंगी, साथ ही कुछ बेरोजगार नौजवान बुजुर्ग महिलाओं की हौसलाफजाई कर समय व्यतीत करते हुए केरम खेलते आते जाते मुसाफिरों को नजर आयेंगे । यदि विवेचनात्मक संज्ञा में कहूं तो गैरसैंण को सियासत ने एक वैश्या के माफिक बना दिया है, जो मन माफिक गैरसैंण के साथ अपनी सियासी हवस का आनन्द उठाता है और फिर कुछ बख्शीश देकर चला जाता है, और गैरसैंण इसी प्रकार सियासी चेहरों की रखेल बन जाती है, सूबे में बारी बारी आती भाजपा और कांग्रेस की सरकारें  इसी सिलसिले में  बार-बार गैरसैण  के जिस्म को नोंछकर चले जाते हैं । यदि हम गैरसैंण के नाम पर ही गौर करें तो  शायद इसी तक़दीर का दंश झेल रहा है “गैर – सैंण” ?

खैर, विधानसभा का बजट सत्र खत्म हो चूका है प्रवासी भी अपने-अपने रोजगार पर लौट आये हैं । और स्थायी राजधानी के लिए 113 दिनों से आंदोलन कर रहे लोगों की उम्मीदें भी लकवा गयी है । बजट सत्र के दौरान सदन के अंदर और बाहर राजधानी और पहाड़ को लेकर हंगामा भरपा रहा । कांग्रेस तीखे और दिखावी तेवरों से भाजपा को लांछित करती रही  । सदन के अंदर ही नहीं बल्कि सदन के बाहर भी आंदोलनकारियों के साथ गैरसैंण-गैरसैंण चीखती रही, लेकिन जब आंदोलनकारियों ने उनके द्वारा की गयी छलरचना को भांपा और पूछा कि दो बार सूबे में हुकूमत करने के बाद भी इस मुद्दे को क्यों भटकाये रखा ? तो इस पर कांग्रेस किसी अबोध और गूंगे की तरह नजर आयी ।

आयाशी और अय्यारी की बात करें तो जहां एक तरफ पक्ष और विपक्ष के मंत्री, विधायक और अफसरान वीवीआइपीज टेबल पर लजीज भोजन और मद्यसार का लुत्फ उठा रहे थे, वहीं विधानसभा के बाहर आंदोलनकारी सड़क पर अनाथों की तरह बैठे पत्तों में खिचड़ी आदि खा रहे थे । जहां सियासत बरसाती ठंड में बेकदर, बेमिसाल बिस्तरों में ब्लोवर और मखमली रजाई से गर्मी का लुफ्त उठा रही थी, वहीं आंदोलनकारी दिनभर-रातभर भिगकते, ठण्ड से ठिठुरते सड़क पर बुलंद आवाज से गैरसैंण, गैरसैंण और गैरसैंण राजधानी का नारा लगा रहे थे । और हां एक बात और कि शायद पहाड़ के इतिहास में ऐसा पहली बार घटित हुआ होगा कि शासन-प्रशासन द्वारा आन्दोलनकारियों पर वाटर कैनन का इस्तेमाल किया गया और राज्य आन्दोलन की ही तरह आंदोलनकारियों पर जमकर लाठियां बजायी गयी । नशेमन शासन-प्रशासन ने यह भी देखा कि किस का हाथ टूटा रहा है और किस का पैर ? सुनने में आया था कि कई महिलाओं के मंगल सूत्र तक गायब हुए, लेकिन इसके बावजूद नारी शक्ति नहीं रुकी ।

पिकनिक सत्र के दौरान स्थानीय विधायक जो देहरादून में डेरा डाले रहते हैं, वो गैरसैंण रामलीला मैदान तक भी नहीं गये जहां आन्दोलनकारी बैठे थे, शायद इस वजह से कि स्थानीय जनता का कहर कहीं हाथापाई करने पर न आ जाये क्योंकि जिस उम्मीद से जनता ने उनको चुना था उसके फर्ज से वो नदारद ही रहे अब तक । हां कुछ गिने चुने विधायक गये जरुर थे लेकिन सीमित इरादों और वादों को लेकर और रही सही कसर तो वजीर-ए-आला ने पूरी कर दी थी यह कह कर कि “राजधानी की मांग तो स्थानीय लोगों की मांग है” । लेकिन शायद वो उस गरिमा और उस पद का स्वाभिमान भूल गये थे कि यह राज्य और यह पद उनको सियासी खेल से नहीं बल्कि शहादती आखेटों से मिला है और गैरसैंण की मांग कोई स्थानीय लोगों की नहीं, उन सभी राज्य आंदोलनकारियों और उन शहीदों की है जिनके शहादत से आप उत्तराखंड के वजीर बन पाए हो ।

बहरहाल इसको पिकनिक सत्र कहो या सदन सत्र ? लेकिन छह दिन तक हुकूमत के यहां रहने से राजधानी जैसा एहसास तो हुआ, लेकिन राजधानी यह एहसास मात्र चार दिन की चांदनी ही साबित हुआ । लेकिन केंद्र बीजेपी का राम मंदिर मुद्दा और फ़िलहाल उत्तराखंड बीजेपी (कांग्रेस भी) का राजधानी आखेट कब तक सियासी मुद्दा बन कर रहेगा ? और जनभावनाओं और शहीदों का सम्मान कर गैरसैंण, कब सियासी राजधानी के रूप में जन्म लेगा ? यह तो समय ही बतायेगा क्योंकि –

इक साल गया इक साल नया है आने को अब, पर वक़्त का फिर भी होश नहीं सियासी दीवानों को अब…

Report by : HIMANSHU PUROHIT

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