क्या आप जानते हैं , आज ही के दिन देश की राजभाषा हिंदी बनी थी और आ खड़ा हुआ था तब संकट !
* देश की अखंड गणतंत्रता के 15 साल बाद देश की राजभाषा हिंदी बनी थी ।
* संकट आया तब देश के खंडन का !
आओ जाने क्यों और कैसे ….?
26 जनवरी 1950, के दिन हमारा संविधान लागू हुआ तो इसमें देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी सहित 14 भाषाओं को आठवें शेड्यूल में आधिकारिक भाषाओं के प्रस्तावित किया गया । संविधान के अनुसार, 26 जनवरी 1965 में हिंदी को अंग्रेजी के स्थान पर देश की आधिकारिक भाषा बनना था विभिन्न राज्य स्तरीय व जनजातीक भाषी देश में ऐसा आसानी से हो सके इसके लिए संविधान गठन में 1955 और 1960 में राजभाषा आयोगों को बनाने का प्रावधान भी रखा गया था जिन्हें हिंदी के विकास के लिए वर्तमान प्रमाण देने थे ।इन प्रमाणों के आधार पर संसद की संयुक्त समिति को राष्ट्रपति से इस संबंध में अपनी राय भी रखनी थी ।
आजादी के दो दशकों बाद भी देश को राष्ट्र भाषा के मुद्दे ने बहुत परेशान किया और इसकी वजह से एक समय विभिन्न राज्यों के आलाकमानों के मतों के कारण नवनिर्मित देश पर टूटने का खतरा भी मंडारने लगा । दक्षिण भारतीय राज्यों को लगता था कि हिंदी के लागू हो जाने से वे उत्तर भारतीय राज्यों के मुकाबले विभिन्न क्षेत्रों में कमजोर ही जायंगे । हिंदी को लागू करने और न करने के आंदोलनों के बीच 1963 में राजभाषा कानून पारित किया गया । जिसने 1965 के बाद अंग्रेजी को राजभाषा के तौर पर इस्तेमाल न करने की पाबंदी को खत्म कर दिया था । हिंदी का विरोध करने वाले इससे पूरी तरह संतुष्ट नहीं थे क्योंकि उन्हें लगता था कि इस कानून में मौजूद कुछ अस्पष्टता फिर से उनके खिलाफ जा सकती है ।
बरहाल, विभिन्न आंदलनों और विरोधों के बीच 26 जनवरी 1965 को हिंदी केवल नाम मात्र देश की राजभाषा बनी और इसके साथ दक्षिण भारत के राज्यों – खास तौर पर तमिलनाडु (तब का मद्रास) में, आंदोलनों और हिंसा का एक जबर्दस्त दौर चला, जिसमें अधिकांश युवा थे,कई युवाओं ने आत्मदाह तक कर लिया । यहाँ तक कि द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के सारे नेता जेल भरो आन्दोलन का हिस्सा बन गये और बड़ी बात यह वरिष्ठ नेताओं का आंदोलन वि्यार्थियों के जोशीले (यानी आसानी से गुमराह होने वाले) हाथों में चला गया और फिर मद्रास, मदुरै, कोयंबटूर और चिदंबरम में जबरदस्त हलचल शुरू हो गई । विएतनाम के बौद्ध भिक्षुओं की तरह कुछ लोग हिंदी के विरोध में अपने बदन पर घासलेट डालकर मर गये । पूरा दक्षिण भारत हिंसा की आग में झुलस रहा था । इन सभी हिंसक प्रकरणों से दिल्ली की गति इस मामले में सांप के सूंघने जैसी हो गयी क्योकि अगर हिंदी लागू करने में जल्दबाजी की जाती, तो एकता खतरे में पड़ती और यदि हिंदी को रद्द किया जाता तो एक ही विकल्प बचता कि प्रादेशिक भाषाएं अपने-अपने क्षेत्रों में फलें-फूलें तथा हर ऊंचे राष्ट्रीय काम के लिए अंग्रेजी की पढ़ाई फिर से शुरू की जाए ।
लेकिन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के मंत्रिमंडल में सूचना और प्रसारण मंत्री रहीं इंदिरा गांधी के प्रयासों से इस समस्या का समाधान ढूंढ़ा गया जिसकी पराकाष्ठा 1967 में राजभाषा कानून में संशोधन के रूप में हुई । संसोधन के अनुसार अंग्रेजी को तब तक देश की दूसरी राजभाषा मान लिया गया जब तक गैर हिंदीभाषी राज्य ऐसा चाहते हों । फ़िलहाल केंद्र द्वारा हिंदी को प्राथमिकता देते हुए अंग्रेजी को वैकल्पिक भाषा माना गया । अंग्रेजी के माध्यम से देश अपना खोया हुआ विरासत और व्यक्तित्व पुन: प्राप्त नहीं कर सकता था क्योंकि सौ साल की अंग्रेजी शिक्षा के बाद भी सिर्फ दो प्रतिशत लोग ठीक-ठाक अंग्रेजी जानते हैं । दिल्ली जानती थी कि अंग्रेजी सांस्कृतिक गुलामी पैदा करती है और अंग्रेजी नौकरशाही ढांचे के लिए ठीक है, लेकिन लोकतंत्र में वह जनता और नौकरशाही के बीच वैश्विक साक्षरता की खाई पैदा कर देगी । लेकिन नौकरशाही और एकतंत्र और रहस्यवादी राज से हमने 26 जनवरी, 1950 को इनकार कर दिया. उसके बाद हमारे सामने यही चारा था कि किसी भारतीय भाषा को राजकीय भाषा का दर्जा दें. हिंदी क्योंकि तब लगभग 46 फीसदी लोगों द्वारा बोली जाती थी, इसलिए उसे यह दर्जा दिया गया. तब भी यह स्पष्ट था कि भाषा के सवाल को लेकर फूटपरस्त ताकतें उभर सकती हैं और राजनीतिज्ञ उनका फायदा उठा सकते हैं ।
वर्तमान में भी केंद्रीय सरकार का रास्ता सचमुच दुविधापूर्ण है । वह हिंदी के वर्चस्व को वापस नहीं ला सकती, क्योंकि अंग्रेजी महत्ता के अलावा कोई विकल्प भी नहीं है और अंग्रेजी जारी रखने से यह साबित होता है कि भारत एक राष्ट्र नहीं, राष्ट्रसंघ है और इस राष्ट्रसंघ के लिए हमें एक कामचलाऊ भाषा की जरूरत है । उसे उम्मीद है कि विरोध करते-करते भी दक्षिण के लोग हिंदी सीखेंगे और सीख रहे हैं. भारत को एक देश मानकर अगर चला जाए तो इसके अलावा और कोई नीति अपनाना संभव नहीं है और संभव हो भी, तो वह इस विधि वैचारिक लोकतंत्र में संभव नहीं है ।
निष्कर्षित समझ से पुरे प्रकरण को देखा जाये, यदि 1963 के समय बने राजभाषा कानून1963 पर 1967 में संसोधन ना किया जाता तो शायद आज देश की अखंडता और विरासत खंडित हो चुकी होती और अनेकता में एकता का नारा मात्र किताबों में सजे पन्नों की शोभा बनता ।