Saket khatare mai : उत्तराखंड में साकेत के अस्तित्व को कोई नक्कार नहीं सकता : सुबोध उनियाल, कृषि मंत्री ।
* साकेत को पड़ा अपनी पहचान का अकाल !
* साकेत की जगह कैसे हथिया ली रूपकौंली ने ?
आगे रिपोर्ट में पढ़ें विस्तार से ….
आखिर क्यों चला गया उत्तराखंड में गरीबों का साथी बहुगुणी साकेत हासिए पर ? क्यों पड़ा उत्तराखंड में साकेत का अस्तित्व खतरे में ? और अब कौन बना साकेत का विकल्प ? आगे रिपोर्ट में आपको बताएंगे कि कैसे साकेत एक समय में पहाड़वासियों के घर-घर में अपनी पैठ बना चुका था जिसे अब अपनी ही पहचान का अकाल पड़ गया है ! अब कुल मिलाकर यह कहना भी गलत नहीं होगा कि बहुगुणी साकेत को लगा दिया है पहाड़ीयों ने ठिकाने !
जी हां ….एक जमाने में गरीबों का साथी माने जाने वाले साकेत, जिसे बहुगुणी भी कहते थे और अब तेजी से बदलते समय में वही साकेत बहुगुणी से अवगुणी हो गयाहै । साकेत पर्वतवासियों का रामबाण था । गरीबों का हमराह साकेत ने कभी भी किसी को भूखे पेट नहीं सोने दिया । एक समय हुआ करता था कि उत्तराखंड में साकेत की धमक हर घर में हुआ करती थी । लेकिन अब जमाना बदल गया है और साकेत लोगों की आँखों को खटकने लगा है । लेकिन उत्तराखंड में कृषि मंत्री सुबोध उनियाल ने स्पष्ट किया कि पर्वतीय क्षेत्रों में साकेत के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता है । अब यह देखना भी दिलचस्प होगा कि क्या सूबे के काबीना मंत्री सुबोध उनियाल साकेत को पुनर्स्थापित कर भी पाएंगे या नहीं । परन्तु सच यह भी है कि जिस बहुगुणी साकेत को लोग अब अवगुणी कहकर छुटकारा पाना चाहते हैं, पहाड़ी जीवन चक्र को ताकत देने में उसके योगदान को भी आसानी से भुलाया नहीं जा सकता है । भले ही साकेत आज अपनी शानदार दमदार पहचान को खो रहा है लेकिन उसके अस्तित्व व योगदान को कोई भी पहाड़वासी नक्कार नहीं सकता है ।
साकेत ने मिटाई जब भूख तो लोगों की राहें हुई आसान :
80 वर्षीय सुदामा लाल कहते हैं कि साकेत हम गरीबों का साथी रहा है । साकेत का योगदान पहाड़ी जीवन को बचाए रखने में अहम रहा है । साकेत ने जब हमारे बच्चों की भूख मिटाई तो आज वह बच्चे देशभर में ऊंचे ऊंचे पदों पर आसीन हैं । चलते चलते सड़क किनारे हुई मुलाकात में लगभग 77 वर्षीय अम्बिका प्रसाद कहते हैं कि भले ही साकेत की जगह आज रूपकौंली ने ले ली हो पर साकेत तो राजा था । वह आगे कहते हैं साकेत रूखा और सख्त मिजाज का जरूर था पर उसे दुर्गुणी नहीं कह सकते हैं ।
आखिर कौन है ये साकेत :
अब वक्त आ गया है अपने पाठकों के कौतूहल व जिज्ञासा को शांत करने का, स्पष्ट करना चाहूंगा कि मैं यहां पर किसी खास व्यक्ति विशेष की बात नहीं कर रहा हूँ । दरअसल साकेत पहाड़ी समाजशास्त्र में जीवनयापन का एक महत्वपूर्ण जरिया भी है, और अभी भी कई इलाकों में उसकी अच्छीखासी पैठ है । साकेत उत्तराखंड की पहाड़ियों पर उगाए जाने वाले धान की विभिन्न प्रजातियों में से एक है । भले ही बदलते जमाने के साथ लोग अब साकेत से मुंह मोड़ने लगे हों परन्तु साकेत के गुणों को कभी भी नकारा नहीं जा सकता है । साकेत धान (चावल) की एक किस्म है इसकी खासियत यह है कि इसके बीज को किसी भी पथरीली, उलखड़ (रूखी सूखी) जमीन पर बोया जाय तो फिर भी यह किसान को शानदार उपज दे देता है । जबकि धान (चावल) की अन्य किस्मो को ज्यादा से ज्यादा पानी चाहिए होता है । साकेत की बालियां लंबी होती हैं और इसकी पौधे भी 3 फीट तक होती हैं । जिस कारण उस पर धान (चावल)की पैदावार भी ज्यादा होती है व लंबी घास के कारण पुवाल (घास) भी अधिक मिलता है । जो कि वर्षभर गरीबों के परिवार के पेट के भरण पोषण के लिए अन्न का प्रमुख जरिया रहा है । साथ ही मवेशियों के लिए भी घास,चारे का भी इससे बढ़िया इंतजाम हो जाता था । कम मेहनत व बिना पानी के उलखड़ (रूखी सूखी) जमीन पर उम्मीद से ज्यादा पैदावार और घास देंने वाला साकेत अब हासिये पर है ।
क्यों गया साकेत हासिए पर :
साकेत को पहाड़ों पर ऊगाई जाने वाली सभी धानो की किस्म में से भिन्न है । इससे बारीक चावल व लम्बा चावल किसानों को मिलता है लेकिन यह बिना पानी वाली बेरुखी जमीन पर होने के कारण नीरस व बेस्वाद भी होता है । लेकिन जब आय के स्रोत कम हुआ करते थे तो यह लोगों की पहली पसंद हुआ करता था । साकेत की मंडाई भी बेहद कठिन होती है है । मैठाणा में किसान यशोदा देवी रावत बताती हैं कि साकेत धान के प्रति किसानों की बेरुखी का कारण एक यह भी है कि एक तो लवाई (कटाई) के बाद इसे 5 से 7 रातों तक खेत में दबा कर रखना पड़ता है फिर इसकी मंडाई छठवें दिन में होती है और तब भी इसका सख्त दाना बहुत मुश्किल से बाली से अलग हो पाता है । कई बार तो पैरों में छाले पड़ जाते हैं या खून तक बहने लगता है । अब लोगों के पास आय के कई अन्य साधन भी उपलब्ध हो गए हैं जिस कारण साकेत पर निर्भरता कम हो गई है । और अब साकेत के कई विकल्प मौजूद हैं जैसे रामजवाण , डोटयाळी, गोविंदधान, रूपकौंलि आदि ।
एक नजर उत्तराखंड के पर्वतीय हिस्सों में ऊगाई जाने वाली धान की विभिन्न प्रजातियों पर :
1 – रूपकौंली :
सींचित खेत में – रंग लाल, आकार बारीक व लवाई कटाई के बाद मंडाई 3 रात में ।
2- रामजवाण :
सींचित असिंचित खेती में – रंग लाल, बेहद खुशबूदार व लवाई कटाई के बाद मंडाई 2 या 3 रात में ।
3- डोट्याली :
असिंचित – कलेजी रंग की डंठल की लंबी घास व पत्ती वाली पौध में बालियों में अंडाकार दानेदार धान के दाने का सिरा काला व बाकी हिस्सा पीला । यह खुशबूदार और अच्छा माना जाता है ।
4- नानू साटि :
सिंचित – इसके नाम से ही इसके गुण आकार प्रकार का पता चल जाता है । नानू का मतलब होता है छोटा और साटि का मतलब है धान (चावल) से । यह स्वादिष्ट होता है और इसकी मंडाई 5 रातों के पश्चात होती है ।
6- नागिण :
नमी (स्यमार) वाली जमीन या सिंचित (स्योरा) – इस धान की बाली नागिन के फन के आकार में होती है और दानों का अगला हिस्सा काला होता है । इस लिए इसे नागिण कहा गया है । इसकी मंडाई सरल मानी जाती है जो 2 से 3 रातों के पश्चात की जाती है । इसे पहाड़ी बासमती भी कहा गया है । और अमीरों के घर की शोभा भी लेकिन अब सब सामान्य है ।
7- बाला साटि :
नाम से ही स्पष्ट है कि इसकी बाली बड़ी होती है और पौध बेहद छोटी । इससे सफेद रंग का चावल मिलता है जिसकी मंडाई 3 रातों के पश्चात होती है ।
8- किरमुली साटि :
किरमुली का अभिप्राय चींटी से है और साटि का धान से तो स्पष्ट है कि इस धान का दाना चींटी समान छोटा ,बारीक व गोल है । यह बहुत स्वादिष्ट तो नहीं पर बेस्वाद भी नहीं है । 5 रातों के पश्चात इसकी मंडाई की जाती है ।
9- चीना साटि :
यह सिंचित (स्योरा) भूमि के लिए उपयुक्त है इसकी ऊपज भी बहुत अच्छी मानी जाती है लेकिन इसकी पौध बहुत लंबी व बारीक होती है फिर जब इस पर भारी बाली का वजन पड़ता है तो यह खेत में बिस्तर के समान लेट जाता है । कई मर्तबा इसके खराब होने का डर भी किसानों को रहता है ।
10- रौँस्या साटि :
सिंचित भूमि (स्योरा) में उगाया जाने वाला धान है ।इससे लाल चावल मिलता है और इसकी मंडाई 3 रातों के पश्चात की जाती है ।
11- चौंर्या साटि :
यह बेस्वाद है और यह असिंचित भूमि (उलखड़) के अलावा सिंचित भूमि में भी उगाया जाता है । मंडाई 3 से 5 रातों में ।
12- गोविंदधान :
यह स्योरा सिंचित भूमि में उगाया जाता है । यह बेहद स्वादिष्ट होता है । इसकी मंडाई 3 रातों के पश्चात होती है ।
13- गरुड़ीया या किस्यालू :
मोटा चावल होता है जो सख्त भी होता है । स्वाद में सामान्य ही है । दानों में आगे से सुई के समान कांटे जिन्हें कीस भी कहते हैं । इसकी मंडाई 5 रातों में होती है ।
14- रत्व साटि :
यह लाल रंग का होता है । स्वादिष्ट भी है परन्तु इसकी मंडाई बेहद कठिन मानी जाती है । पैरों में छाले भी पड़ जाते हैं मंडाई के वक़्त । इसकी मंडाई 7 या फिर 9 रातों के पश्चात होती है ।
15- साकेत :
ऊपज में बहुत अच्छा होने व आकार प्रकार व रंग में भी अब्बल होने के बाबजूद साकेत किसानों की पसंद से बाहर होता जा रहा है और कारण है सिर्फ इसका बेस्वाद होना । साकेत की मंडाई 5 या 7 रातों के पश्चात होती है ।
उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में इसके अलावा और भी अन्य कई किस्में धान की हैं जो धीरे धीरे विलुप्त हो रही हैं । बीजों के संरक्षण के मुद्दे पर जब मैंने सूबे के कृषि मंत्री सुबोध उनियाल से बात की तो उन्होंने भी माना कि बीजों का संरक्षण किया जाना बेहद जरूरी है । श्री उनियाल ने कहा कि समय बदलता गया तो पहाड़ी जनमानस के जीवन में परिवर्तन होता गया जिस कारण हम लोगों ने समय के साथ साथ स्वाद के हिसाब से खाद्य वस्तुओं का चयन किया है । लेकिन हमें यह नहीं भूलना है कि साकेत जैसे सख्त मिजाज के धान की पौष्टिकता की देन है कि जिसने हमें कभी भूखा नहीं रहने दिया । भले ही यह धान बेस्वाद बेशक रहा हो परन्तु इसके पौष्टिक गुणों को नक्कार भी नहीं सकते हैं । मैं यह भी मानता हूं कि हमारे पूर्वज आज के समय से भी ज्यादा संवेदनशील थे और अगर उन्होंने सैकड़ों वर्षों तक धान की इस प्रजाति को पहले स्थान पर रखा तो जरूर इसमें बेहद लाभकारी ऐसे गुण तत्व भी मौजूद होंगे जिन्हें हम सिर्फ स्वाद बेस्वाद की कसौटी पर तोलकर दर-किनार नहीं कर सकते हैं । बहुत जल्दी उत्तराखंड की समस्त धान की किस्मों को एकत्रित कर उसके तत्वों पर शोध करवाया जाएगा । और किसानों को भी जागरूक किया जाएगा ।
- Shashi Bhushan Maithani ‘Paras’ 9756838527 , 7060214681