सुप्रसिद्ध स्तंभकार / लेखक सुशील कुमार सिंह से खास बातचीत ।
Sushil Kumar Singh – Journalist of the week : नायक से खलनायक बनता कलमकार …!
देश,प्रदेश में कई ऐसे शिक्षाविद् लेखक एवं पत्रकार है जो अपने क्रियाकलापों के चलते क्षेत्र विशेष में मील के पत्थर माने जाते है। ऐसा ही एक नाम शिक्षाविद्, प्रेरक प्रवक्ता तथा पत्रकारिता एवं लेखन से जुड़े सुशील कुमार सिंह का है, जो देहरादून स्थित प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल एवं वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन के संस्थापक निदेशक है। जिन्हें 20 वर्ष से लेख लिखने तथा 14 वर्षों से अध्यापन का बेहतरीन अनुभव है। इनके लेख भारत के लगभग 30 से अधिक हिन्दी समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं में हजारों की संख्या में प्रकाशित हो चुके हैं साथ ही समाज और प्रशासन पर कई शोध पत्र भी प्रकाशित हुए है। टेलीविजन पत्रकारिता का भी अनुभव रखने वाले सुशील कुमार सिंह को उत्तराखण्ड रत्न, विशिष्ठ विभूति सम्मान, यूथ आइकॉन Yi नेशनल अवॉर्ड एवं एपीजे अब्दुल कलाम नेशनल प्रसनेलिटी अवॉर्ड समेत दर्जनों राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं। शिक्षा और लेखन के क्षेत्र में योगदान को देखते हुए सुशील कुमार सिंह को 16 अक्टूबर 2016 को यूथ आइकॉन Yi नेशनल अवॉर्ड उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत एवं देश के जाने माने पत्रकार उर्मिलेश द्वारा प्रदत्त किया गया । और वर्ष 2016 के अंत में इन्हे 11 दिसम्बर को हांगकांग में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मान ग्लोब प्लेटिनियम अवॉर्ड 2016 (एशिया पेसिफिक) से भी सम्मानित किया गया है । अध्यापन के साथ साथ लेखन कला के धनी सुशील कुमार सिंह से पत्रकारिता पर उठते सवालों सहित कई मुद्दों पर हुई मेरी बातचीत के अंश आगे आप भी पढ़िए ।
‘हार के आगे जीत है’केहौसले को रखा जिंदा ।
साक्षात्कार :
Yi शशि पारस :आप आईएएस बनना चाहते थे फि र पत्रकार कैसे बन गए ?
सुशील कुमार : मैं मूलत: उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जनपद का रहने वाला हूं। पिताजी किसान थे और माताजी एक गृहिणी थी। मेरी शिक्षा-दीक्षा इलाहाबाद, लखनऊ तथा दिल्ली से ही हुई जिसमें सांइस, मैंनेजमेंट, जर्नलिज्म एवं लॉ शामिल है। वर्तमान मैं विगत 14 वर्षों से देहरादून में रह रहा हूं। मैं जब बी.एस.सी द्वितीय वर्ष में था तब से ही सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी में लग गया था। लेकिन शायद होनी को कुछ और ही मंजूर था, 13 साल की जी तोड़ मेहनत के बाद भी मेरा चयन सिविल सेवा में नहीं हो पाया पर मुझे इसे लेकर कोई खास निराशा भी नहीं हुई बल्कि इसके उलट मेरे इरादें और मजबूत होते गए। इस लम्बी असफलता के चलते एक फायदा यह हुआ कि मेरा रूझान पत्रकारिता की ओर हो गया।
Yi शशि पारस :टीवी पत्रकारिता में किस तरह का अुनभव रहा आपका ?
सुशील कुमार : यहीं कोई 16-17 साल पुरानी बात है, उन दिनों मैं दिल्ली में सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहा था परंतु आर्थिक दिक्कतें भी बहुत थी। साथ ही वक्त भी बहुत निकल गया था। मुझे लगा कि कैरियर की रणनीति बदलनी चाहिए। तब मैेंने जर्नलिज्म में पोस्ट ग्रेजुएशन करने की सोची साथ ही स्थानीय टीवी न्यूज से भी जुड़ गया। महीने भर में कुल दो-ढ़ाई हजार रूपया ही मिल पाता था, परंतु मजा बहुत आता था। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे कल्याण सिंह समेत सीबीआई के निदेशक रहे जोगिन्दर सिंह एवं सतर्कता आयोग के आयुक्त डी एस माथुर जैसे सैकड़ों लोगों का साक्षात्कार लिया जो टीवी पर प्रसारित हुआ। टीवी पत्रकारिता का अपना अलग ही मजा था। रोज कुछ न कुछ नया सीखने को मिलता था।
Yi शशि पारस : लोकतंत्र का चौथा स्तंथ आज कटघरे में क्यों खड़ा है ? नायकों को जनता खलनायक की नजरों से क्यों देख रही है ?
सुशील कुमार : पत्रकार, लेखक व साहित्यकार जनता का वह नायक होता है जो जो आम जनमानस की तकलीफ ों उनकी पीड़ाओं और सरोकरों को शब्द देता है। जनता के साथ उनकी सक्रियता लगातार बनी रहती है। लेकिन पहले की अपेक्षा अब पत्रकारिता पर सवाल ज्यादा उठने लगे हैं। पत्रकारों को इस ओर ध्यान देना होगा। पत्रकारिता निष्पक्ष होनी चाहिए, जब हम पत्रकारिता में पक्षपात करने लगेंगे और फैसला अपनी खबरों के माध्यम से खुद ही सुनाने लगेेंगें तो सवाल उठने तो लाजमी हैं। यह सब पत्रकारिता में उन लोगों के आने से हुआ है जो अपने पैंसो के बलबूते पर पत्रकार बन बैंठे हैं, जो पत्रकारिता की आड़ में अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं। इन लोगों ने कलमकार को नायक से खलनायक बनाकर रख दिया है। कलमकार अपनी राह से न भटके, और पत्रकारिता की आड़ लेकर कोई अपने स्वार्थों की पूर्ति न कर रहा हो, इसके लिए सरकारों को कड़े नियम बनाने होंगे।
Yi शशि पारस : पत्रकारिता के साथ प्रयास आईएएस स्टडी सेंटर की स्थापना का ख्याल मन में कैसे आया ?
सुशील कुमार : पत्रकारिता में बहुत मेहनत से कर रहा था, मैं टेलीविजन के लिये साक्षात्कार लेने का काम करने लगा, लेकिन पत्रकारिता से आर्थिक समस्या हल नहीं हो पा रही थी, आर्थिक समस्याओं के चलते इसमें मन नहीं लग रहा था। उन दिनों एक कहावत प्रचलित थी कि लड़का पत्रकार है पर करता क्या है ? मैं सोच रहा था कि पत्रकारिता भी चलती रहे और आर्थिक परेशानी भी दूर हो जाए मैं ऐसा क्या काम करू? मेरी यह उलझन भी दूर हुई, साल2002 में देहरादून में सेवारत मेरे एक पीसीएस मित्र के सुझाव पर मैनें प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल की स्थापना की। आज प्रयास सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने वाले युवाओं के लिए पठन-पाठन का एक उपयुक्त केन्द्र है। मेरा एक ही मकसद है कि जो मैं 13 साल की जीतोड़ मेहनत के बाद भी न पा सका वैसा मेरे संस्थान मैं आने वाले किसी युवा के साथ न हो। फिलहाल कह सकते हैं कि वर्तमान मैं शिक्षाविद् के साथ लेखन व पत्रकारिता से सिद्दत से जुड़ा हूं।
Yi शशि पारस : सिविल सेवा के क्षेत्र में उत्तराखंड में क्या संभावना देखते हैं और यहां के युवाओं में इसे लेकर कितना जुड़ाव पाते है ?
सुशील कुमार : जब मैने प्रयास आईएएस स्टडी सर्किल शुरू किया तो शुुरूआती दिनों में युवाओं के अंदर सिविल सेवा को लेकर प्रेरक प्रंसग भरना काफी चुनौतीपूर्ण था। अब तो जागरूकता बहुत आ गई है साथ ही युवा भी अपनी जिम्मेदारी को लेकर पहले से कहीं अधिक सजग हुआ है। जिसके चलते उत्तराखंड में सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने वाले युवाओं की संख्या न केवल बढ़ी है बल्कि चयन दर भी सुधरा है।
सुकून कि बात यह है कि क्रमिक तौर पर यह उत्तरोतर वृद्धि भी कर रहा है। अब तक मेरे मार्गदर्शन में चयनित ज्ञात सिविल सेवा एवं उत्तराखंड पीसीएस के अभ्यर्थियों की संख्या 111 है। जिसमें 10 डिप्टी कलेक्टर भी है।
Yi शशि पारस : युवाओं के लिए लेखन के क्षेत्र में आप कैसी संभावना देखते
है ?
सुशील कुमार : मैठाणी जी आपने बड़ा मार्मिक सवाल कर दिया। दरअसल लेखन एक ऐसी विधा है जिसके लिये सुगम संसाधनों की नहीं बल्कि इरादों की जरूरत होती है। देखे तो जितने भी देश में मेरे जैसे लेखक है सभी की दशाओं में कुछ खास अंतर नहीं होगा। विचार परोसना और नित नये विचारों के साथ अठखेलियां करना खाटी लेखकों की मानो आदत हो। कहें तो यह एक नशा है और इसी के चलते यह सब संभव हो जाता है ।
Yi शशि पारस : इलाहबाद छोड़ देहरादून को कार्यक्षेत्र चुनने के पीछे कोई बड़ी वजह ?
सुशील कुमार : असल में मैं संघर्ष के उन दिनों में निर्माता-निर्देशक के तौर पर भी बतौर परीक्षण लिया था और दिल्ली में एक टेलीविजन प्रोडक्शन हाऊस भी निर्मित किया था। डीडी मेट्रो में सीरियल प्रसारण हेतु स्लॉट के लिये भी कोशिश कर रहा था पर बात नहीं बनी। जैसा कि मैनें बताया कि मेरा एक मित्र मसूरी सेवारत् था साल में दो बार मसूरी घूमने आता था। इसी दौरान देहरादून स्थित उत्तरांचल फिल्म एवं टेलिविजन इंस्टीट्यूट में निदेशक का पद खाली था, जिसके लिये मैंने आवेदन किया और नियुक्ति भी हो गई पर मन नहीं लगा 27 दिन में ही नौकरी छोड़ दी। हालांकि यह संस्था भी 3-4 साल बाद बंद हो गई थी। तब तक मुझे पता चल चुका था कि लोहार को सुनार नहीं बनना चाहिए। पठन-पाठन, लेखन ही मेरी विधा है और यहीं करना चाहिए। सच यह है कि आज भी यहीं कर रहा हूँ और काफी सुकून में हूँ।
Copyright: Youth icon Yi National Media, 02.01.2017
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Superb article.I like it.