Tibari ? तिबारी अब यादों में बाकी ! नहीं भूलेगा उत्तराखंड । एक तरफ राज्य स्थापना दिवस का जश्न तो दूसरी ओर श्रद्धांजलि !
दम तोड़ती पहाड़ी पहचान के बीच यह कैसा जश्न इसलिए इस वर्ष हमारी तरफ से पहाड़ की शान पहाड़ की पहचान “तिबारी” को श्रद्धांजलि ।
देश-दुनिया में बसे उत्तराखंडियों का तिबारी से और तिबारी का उत्तराखंडियों से एक अटूट रिश्ता रहा है । दोनों एक दूसरे के पूरक रहे हैं । तिबारी का प्रभाव और हमारे जनजीवन में उसकी मौजूदगी हमें भीतर ही भीतर ऊर्जा देती थी, किंतु समय और बदलाव को कोई नहीं रोक सकता परिवर्तन ही संसार का नियम है । किंतु हमें समय के साथ-साथ नियति को भी स्वीकारना होगा ।
जिस तरह से बदलते समय के साथ-साथ भवन निर्माण की शैली में भी बदलाव आया… सस्ते, टिकाऊ भवन सामग्री की उपलब्धता और प्रचलित शैली के सस्ते कारीगर मिलने से अब गत 15 से 20 वर्षों में दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों में भी भवन निर्माण कला में भी बेहद तीव्र गति से बदलाव आया है । महज दो दशक पूर्व तक जो तिबारी हमारे साहित्य, संगीत, कला और परंपराओं में रची बसी थी वह अब कहीं न कहीं अपने जर्जर स्वरूप में दिखाई देती है । इसका एक सबसे बड़ा व्यावहारिक पक्ष यह भी है कि भवन निर्माण के लकड़ी की अनुपलब्धता और उसके महंगे होने के अलावा पहाड़ भर में पर्वतीय काष्ठ कला के कारीगरों का भारी अभाव का होना भी एक बड़ा कारण है ।
पलायन की सोच भी तिबारी जैसी समृद्ध काष्ठ कला को निगल गई । क्योंकि तब व्यक्ति पीढ़ियों के लिए घर बनाता था । स्थानीय सामग्री लगभग नि:शुल्क उपलब्ध थी और गांव में ही कारीगर उपलब्ध होते थे तब घर बनाना सुविधा से बढ़कर रुचि और प्रतिष्ठा का विषय भी था, जिसके अवशेष अभी भी पर्वतीय अंचलों में कहीं-कहीं दिख जाते हैं । आज के बदले हुए परिवेश में नागरिक अपने पुराने घरों की मरम्मत में भी पुराने स्थापत्य कला को जड़ों-जड़ बदल दे रहे हैं । सीमेंट, ईट और लोहे का निर्माण सस्ता व टिकाऊ माना जा रहा है ।
उत्तराखंड के खुदेड़, पलायन और विरह के लोकगीतों में तिबारी दण्डयाली का जिक्र होना बताता है कि तत्कालीन पर्वतीय जन-जीवन में कितना संवेदनशील और गहरा रिश्ता रहा होगा, जहां पर बैठकर समाज ने अपने सुख-दु:ख बांटे होंगे । और भविष्य के सपने देखे होंगे । प्रवास पर गए अपने प्रिय जनों की जहां से बैठकर एक टक प्रतीक्षा की होगी, इसलिए आज भी पहाड़ के लोकगीत में तिवारी का जिक्र होते ही विरह की पीड़ा के घाव को छूने जैसा दर्द हो जाता है ।
कालजई गीतकार नरेंद्र सिंह नेगी ने टिहरी डूबने की पीड़ा भरे गीत में …. एक बुजुर्ग अपने पुत्र से गांव के जल समाधि लेने से पूर्व एक बार अपनी तिबारी और डंडियाली के दर्शन करने की मार्मिक अपील कर रहा है ।
काश जिस तरह राज्य की पहचान के लिए 42 शहादते हुई अपेक्षा थी कि हमारे नीति-नियंता राज्य की पहचान कला संस्कृति और संगीत के संरक्षण को गंभीरता से लेंगे और सरकार के हर कदम में चिंता दिखेगी, सरकार चाहती तो सभी सरकारी भवनों के निर्माण को पर्वतीय शैली में बनाने की कठोर नीति तय करती तो आज हमें राज्य स्थापना दिवस के दिन इस समृद्ध और गौरवशाली तिबारी को श्रद्धांजलि नहीं देनी पड़ती ।
दम तोड़ती पहाड़ी पहचान के बीच यह कैसा जश्न इसलिए इस वर्ष हमारी तरफ से पहाड़ की शान पहाड़ की पहचान “तिबारी” को श्रद्धांजलि ।
ओह, शुरुआत में खबर आदरणीय तिवारी जी के सम्बंध में लगी, क्योकि वे आजकल अस्वस्थ है।
बहुत महत्वपूर्ण विषय आपने उठाया।
जी बिल्कुल सही कहा लखेड़ा जी आपने कई लोगों को इस बात की गलत फहमी हुई है। कुछ मीडिया से जुड़े साथियों के लगातार फोन भी आ रहे हैं। लेकिन मेरा सभी अनुरोध है कि कृपया “तिबारी” और तिवारी में फर्क समझें ।
तिवारी जी अस्वस्थ हैं और पहाड़ से तिबारी गायब है ।
तिबारी को श्रद्धांजलि व तिवारी जी को शीघ्र स्वस्थ होने की शुभकामनाएं ।
Bilkul Sahi kha aapne aadhunikta ki is daud me tibari bhi ab kewal yado me hi dikhegi aane wale pidhi ke liya bda durbhagya.
बहुत सुंदर और हक़ीक़त से रु ब रु कराता शानदार लेख हेतु आभार नमस्कार आदरणीय भाईसाहब जी।
Immpersive sir
बहुत शानदार लेख लिखा है, आधुनिक युग में तिबारी को लोग तिवारी समझ गये हैं अभी से तो आगामी दस सालों बाद तिबारी की सड़ी गली लकड़ी को एसे फेंक देंगे कि वो चूल्हे में आग जलाने के काबिल भी नहीं रहेगा, ,, आजकल तिबारी बनाने के लिये मिस्त्री नगण्य हैं, ,,,, लोग अब तिबारी को दूसरे अर्थों में समझने लगे हें,,,,, भविश्य बहुत ही अर्थहीन रहेगा,,,