Unique wedding tradition : यहां दूल्हा नहीं बल्कि दुल्हन जाती है बारात लेकर । उत्तराखण्ड के किस ईलाके में यह परम्परा पढ़ने के लिए क्लिक करें ।
जब दुल्हन बारात लेकर दुल्हे के आँगन पहुंची !
पंडाल में नृत्य चल रहा था. यहाँ भी डीजे संस्कृति हाबी हो चुकी है. इस बात का मलाल सिर्फ हमें ही नहीं बल्कि ग्राम प्रधान कुकरेडा चतर सिंह, ग्रामीण हीरा सिंह चौहान इत्यादि को भी था. गॉव के कई बुजुर्ग भी इसे ठीक नहीं मान रहे थे लेकिन वक्त और हालात के साथ चलना जैसे सबकी मजबूरी हो. दुल्हन पंडाल में रखी उस कुर्सी पर जा बैठी जो आज की संस्कृति के हिसाब से जयमाला की होती है. जहाँ बैठकर वह अपने दुल्हे राजा का इन्तजार करने लगी. इधर डीजे की ताल में नृत्य चल रहा था. सब युवक युवतियां अपने अपने हिसाब से हर ताल हर गीत के बोल पर नृत्य में मशगूल थे जैसे उनको इस बात से कोई फर्क ही नहीं हो कि दुल्हन कहाँ है और कैसी है? कुछ झुरमुट में बाराती व घराती जरुर दुल्हन के इर्द-गिर्द थे. अब बारी दूल्हे की थी. ढ़ोल बाजे के साथ दुल्हे राजा विनोद अपने घर से निकल चुके थे जिन्हें कन्धों पर नचाते उनके मित्र पंडाल की ओर बढ़ रहे थे.
जब दुल्हन बारात लेकर दुल्हे के आँगन पहुंची! (मनोज इष्टवाल) उसके क़दमों में बेहद चपलता थी कान्फिडेंस सातवें आसमान! सचमुच दुल्हन का यह रूप अपने आप में लाजवाब था. अभी तो गॉव की देहरी पर कदम ही रखे थे. कैमरे का फ्लेश चमका तो सुलोचना की नजरें झुक गयी. सुलोचना यानि दुल्हन! जो मोरा गॉव से अपनी बारात लेकर बलावट गॉव अपने दुल्हे के आँगन को अपने पैरों की छाप
देने पहली अपनी बारात लेकर आई थी.
पंचायती आँगन में ढ़ोल के शब्द उस शोरगुल में मिल गए जो आज का वह सच है जिसे हम झुठला नहीं सकते. भौतिकवादी युग ने हमें बेवजह होहल्ला मचाने वाले भोंपू दे दिए हैं जिन में गाने वाले व्यक्ति उस मजे को उस लोक संस्कृति को ख़त्म कर रहे हैं जिसे हम हारुल, तांदी इत्यादि के सामूहिक स्वर में सुना करते थे. तब क़दमों की थाप भी अपनी होती थी और बात भी अपनी!. अब तो यह सिर्फ रासा बन गया है. सुर्ख लाल जोड़े में सजी दुल्हन व उसकी सहेलियां आगे-आगे व पूरी बारात उनके पीछे लगभग 9:48 बजे रात्री पहर पंडाल में पहुंची. पंडाल में चंद कुर्सियां पीछे लगी हुई थी बाकी सारे पंडाल में नृत्य चल रहा था. यहाँ भी डीजे संस्कृति हाबी हो चुकी है. इस बात का मलाल सिर्फ हमें ही नहीं बल्कि ग्राम प्रधान कुकरेडा चतर सिंह, ग्रामीण हीरा सिंह चौहान इत्यादि को भी था. गॉव के कई बुजुर्ग भी इसे ठीक नहीं मान रहे थे लेकिन वक्त और हालात के साथ चलना जैसे सबकी मजबूरी हो. दुल्हन पंडाल में रखी उस कुर्सी पर जा बैठी जो आज की संस्कृति के हिसाब से जयमाला की होती है. जहाँ बैठकर वह अपने दुल्हे राजा का इन्तजार करने लगी. इधर डीजे की ताल में नृत्य चल रहा था. सब युवक युवतियां अपने अपने हिसाब से हर ताल हर गीत के बोल पर नृत्य में मशगूल थे जैसे उनको इस बात से कोई फर्क ही नहीं हो कि दुल्हन कहाँ है और कैसी है? कुछ झुरमुट में बाराती व घराती जरुर दुल्हन के इर्द-गिर्द थे. अब बारी दूल्हे की थी. ढ़ोल बाजे के साथ दुल्हे राजा विनोद अपने घर से निकल चुके थे जिन्हें कन्धों पर नचाते उनके मित्र पंडाल की ओर बढ़ रहे थे. दुल्हे जी कन्धों पर ही नृत्य कर रहे थे. उनकी क्या स्थिति रही होगी ये समझना जरा मुश्किल कार्य है क्योंकि जिन कंधो पर वे सवार थे वे खुद नृत्य कर रहे थे और दुल्हे राजा को कन्धों से बार बार 6 अंगुल ऊपर उछलना पड़ रहा था. सिर्फ बंगाण क्षेत्र ही नहीं बल्कि रवाई, जौनसार बावर के क्षेत्र में डोली पालकी का कोई रिवाज नहीं होता. पहाड़ के अन्य क्षेत्रों में “टक्को कु ब्यो” या “रुप्यों कु ब्यो” की परम्परा थी वह अब समाप्त हो गयी है. वहां गरीब घर से आई दुल्हन को लेने सिर्फ बारात जाती थी न कि दुल्हा. दूल्हा कैसा है यह दुल्हन को पता नहीं होता था क्योंकि गरीब पिता बारातियों के घर आगमन का खर्चा वसूल करता था ताकि बेटी को विवाह सके. इसे दुसरे रूप में पिता द्वारा रुपया खाना भी समझा जाता था यह कुरीति अब गढ़वाल मंडल में समाप्त हो गयी है. इस क्षेत्र में दुल्हन द्वारा बारात लेकर आना “टक्को कु ब्यो” या “रुप्यों कु ब्यो” से इसका दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं होता. हाँ इतना जरुर होता है कि दुल्हन को रिश्ता पक्का होते समय दूल्हा पक्ष एक चांदी का सिक्का देकर आता है.
दुल्हा कन्धों पर नाचता हुआ जब पंडाल पहुंचा तो दुल्हन उनकी अगुवाई के लिए उस कुर्सी से उठ खड़ी हुई. फिर वही हुआ जो हमारी लोकसंस्कृति का हिस्सा हम फोटोग्राफर्स ने बना दी है. जयमाला…! जयमाला होने के बाद दूल्हा दुल्हन वेदी मंडप पर जा पहुंचे जहाँ सवा हाथ लम्बी वेदी में मंत्रोचारण चल रहे थे. यह वेदी भी अजब-गजब की हुई. न केले के पेड़ की कोई रस्म न घड़े दीयों का पूजन! पूजा विधि भी बिलकुल अलग. जहाँ तक मुझे लगता है आज भी इस क्षेत्र में कर्मकांड जानने ब्राह्मण नहीं हैं या फिर यहाँ की लोक संस्कृति का यही एक हिस्सा है. क्योंकि न सुबह दूल्हा नहाने की कोई परम्परा दिखाई दी न दूल्हे को हल्दी बाने लगाने की. सबसे बड़ी बात यह थी कि वेदी फेरे की रस्म जहाँ चल रही थी वहां सिर्फ चंद घराती और बाराती थे बाकी सब पंडाल में नृत्य में ब्यस्त थे. यही इस क्षेत्र की वैभवपूर्ण परम्परा का हिस्सा भी है. लोक सरोकारों व लोक समाज की पैरवी करने वाले इस क्षेत्र की संस्कृति में भी वही सब घुल मिल रहा है जो मैकाले की शिक्षा पद्धति का अंश था. अपनी लोक संस्कृति पर बेवजह हो रहे ऐसे कुठाराघात को देखकर उप-जिलाधिकारी शैलेन्द्र नेगी बेहद व्यथित दिखे. उनका कहना था कि धनवान चाहे अपनी बेटी की शादी में कितना भी खर्च कर ले लेकिन निर्धन की बेटी की शादी उसकी कमर तोड़ देती है. वह भी चाहता है कि शाही खर्च करे. वह लोन लेता है लेकिन चुकता न कर सकने के कारण उसकी स्थिति बद से बदत्तर हो जाती है. उन्होंने कहा सच कहूँ तो हम सभी को मिलकर इस बात की पहल करनी चाहे कि बेवजह के कानफोडू संगीत जैसे डीजे और ये
भौम्पू स्टाइल के यंत्र ग्रामीण अंचल में बंद हों ताकि हमारी पुरातन संस्कृति ज़िंदा रहे और हम उसका लुत्फ़ उठा सकें. कस्तूरबा गांधी आवासीय बालिका विद्यालय खरसाड़ी जिला उत्तरकाशी की वार्डन प्रमिला रावत को इस बात का मलाल था कि वह इस शादी में शिरकत नहीं कर सकी. वे बंगाणी लोक संस्कृति की वकालत करती हुई कहती हैं कि हम उन महिलाओं में शामिल हैं जिन्हें पूर्व से ही अधिकार सम्पन्न समझा व बनाया गया है. प्रमिला रावत ने चर्चा में जानकारी देते हुए बताया कि पहले की लोक संस्कृति में जब दुल्हन बारात लेकर आती थी तब खूब तांदी के गीत लगते थे. विवाह मंडप में बैठने से पूर्व दुल्हन बारात सहित बैठक में बैठती थी जहाँ उन्हें पूरे सम्मान के साथ चाय नाश्ता परोसा जाता था तब दुल्हन मंडप (वेदी) में आकर बैठती थी. ये जयमाला वाला चलन बेहद नया है जो पहले नहीं हुआ करता था. इधर मंडप में फेरे की रस्में चलती थी उधर घराती बाराती मेहमान खाना खाकर निबटते थे. फेरे होने के बाद दुल्हन दूल्हे के मुख्यघर के चूल्हे के पास चुल्हा पूजन की रस्म पूरी करती है जिसमें वर पक्ष के माँ पिताजी, चाचा चाची, मौसी व अन्य सगे सम्बन्धी क्रमबद्ध तरीके से जोड़े में बैठते हैं. यहाँ वह उस बंधक रूपये (चांदी का रुपया जो रिश्ता पक्का होने पर दुल्हन को दिया जाता है) को चूल्हे पर छोडती है जिस से यह साबित हो जाता है कि मैंने आपके बंधन की लाज रखते हुए उस कुल (मायका) से इस कुल (ससुराल) की समस्त परम्पराओं का ख़ुशी ख़ुशी निर्वहन कर इस घर का अंग बनने की सर्व सम्मति दे दी है. तदोपरांत दुल्हन अपने सासू-ससुर व अन्य सम्बन्धियों के पैरों में रुपये रखती है जो भेंट के रूप में परिवार वाले स्वीकार करते हैं. अब वर पक्ष भी दुल्हन को अपनी ओर से सौगात देने लगा है जोकि पहले परंपरा में शामिल नहीं था. इसके पश्चात यह तय मान लिया जाता है कि दुल्हन अब वर पक्ष के घर की हिस्सा बन गयी है. फिर दुल्हा दुल्हन साथ बैठकर खाना खाते है. प्रात:काल में दुल्हन पक्ष के बाराती छाईयां गीत नृत्य प्रस्तुत करते हैं जो विवाह की अंतिम रस्म मानी जाती है. जौनसार में इसे राईणा रात के गीत कहा जाता है वहां प्रात:काल में गाय के गौंत (मूत्र) या गंगा जल से उस कमरे को शुद्ध करते हुए गीत लगते हैं जिसे प्रात:काल की नौबत्त बजना भी कहा जाता है- रईणा रात भिवाणी लाइगी, रात भियांदी लाईगी के सिया के पाणी चाली, सिया पाणी के चाली. लागे नौमत्ती के टाँके महासू देवा, लागे नोमत्ती के टाँके महासू देवा !!
जैसा गीत शगुन के तौर पर गया जाता है जबकि बावर क्षेत्र व बंगाण में छाईयां लगता है- छो भाई छाईयां..केसो नाचलो छाईयां, ऐसोई केसो नाचलो छाईयां छो भाई छाईयां..सूर री ढुलकी, छो भाई छाईयां..मांगे पगारे छाईयां छो भाई छाईयां..चोडे मेडाठी, छो भाई छाईयां..ऊबे चोडे छपराठी छाईयां छो भाई छाईयां..बड़ा रुसाड छाईयां, छो भाई छाईयां..बड़ा नचाड छाईयां सच कहें तो यह नृत्य व गीत तालियों के बीच घंटों तक चलता रहता है जब तक सूरज की किरणें न निकल पड़ें. इसमें कई तरह की बातचीत होती है, मांग रखी जाती है व हंसी मजाक का माहौल होता है. जिसमें जवान, बुजुर्ग व बच्चे सभी वर्ग के महिला पुरुष सब नृत्य करते हैं. यह परम्परा निरंतर बनी रहे इस पर प्रमिला रावत सशंकित सा जवाब देती हैं. वे कहती हैं कि उनसे पुराने उन्हें बताते हैं कि बारात विदाई पर जब गॉव की सरहद तक महिलायें या पुरुष विदाई देते थे तब बाजूबंद होता था जिसे सीढ़ी भाषा में ऐसी प्रतियोगिता कहें तो सही रहेगा कि घराती बारातियों से अनुरोध करते थे कि आज भी रुक जाओ हम मेहमान नवाजी में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे उधर बाराती फिर जवाब देते थे. यह समूह गायन दोनों ओर से कई घंटो तक चलता रहता था इस सवाल जवाब में कई घंटे यूँहीं बर्बाद हो जाते थे क्योंकि न घराती ही हार मानते थे न बाराती ही! ऐसी लोक परम्परा का वास्तव में प्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग को विसुअल दस्तावेज बना लेना चाहिए क्योंकि तेजी से आ रहे सामाजिक बदलाव में यह सब देखना आगामी 5 या 10 बर्ष बाद बेहद दुर्लभ हो जाएगा. ऐसी बंगाणी लोक संस्कृति के नुमाइंदों को मन क्रम वचन से प्रणाम व वर विनोद रावत व वधु सुलोचना को ढेरों शुभकामनाएं!
Gajab,hahaha