Victory Kargil By. Manmeet : करगिल से गुजरते वक्त …!
लद्दाक मंडल के तहत दो जिले आते हैं। लेह और करगिल। हिमाचल की तरफ से जाएंगे तो पहले लेह आएगा है और उसके बाद करगिल। कश्मरी को समझने के लिए मेने लेह से सफर करने का निर्णय लिया। लेह से लगभग 223 किलोमीटर की दूरी पर करगिल है और एनएच- वन हाईवे यहीं से शुरू भी होता है। पंेगोग झील से लौटने के बाद लेह के एक होटल में सुबह उठकर बाहर आया तो लगा नहीं कि भारत में हूं। लगा जैसे कजाकिस्तान या तिब्बती के किसी प्रांत में हूं। पूरा इलाका शीत मरुस्थल है। कहीं कोई वनस्पति नहीं। कोरी ठंड और दूर तक नारंगी मिट्टी के पठार। शहर छोड़कर थोड़ा दूर चलेंंगे तो लगेगा मानो मीडिल इस्ट के देश मंे पहुंच गए। लेह में काफी टूरिस्ट आते हैं। जो हिमाचल के मनाली से रोहतांक पास- जिस्पा और नेलांग होते हुए एक लंबे सफर से गुजरते हुए लेह पहुंचते हैं और यहां से खारदुंगला घाटी, पेंगगोंग झील, नुबरा घाटी की तरफ मुड़ जाते हैंं। कम ही लोग करगिल की तरफ जाते हैं।
दो दिन लेह और उसके आसपास खाक छानने के बाद हमने करगिल जाना तय किया। यहां से शुरू होने वाला हाईवे-1 करगिल से कुछ आगे सियाचीन के नीचे से गुजरता है। इसी हाईवे को विदेशी ताकते कश्मीर की गर्दन भी कहते हैं। जो लेह से दिल्ली तक 1292 किलोमीटर तक है। बहरहाल, लेह में गुजारी आखिरी रात को इजारयली ग्रुप के लाइव बैंड में कब लोकल छंग पीकर थिरकने लगा और कब नींद आ गई पता नहीं चला। सुबह ड्राइवर ने उठाया तो सीधे फ्रेश होकर अपनी फेवरेट बुलेरो जीप के स्टीयरिंग को हाथ में पकड़ लिया और दबा दिया एक्सीलरेटर। हां, एक बात बता दूं कि लेह में अस्सी फीसदी बोद्ध और बीस फीसदी मिश्रित धर्मों के लोग रहते हैं। लेकिन जैसे ही करगिल की तरफ आगे बढ़ते जाएंगे, फर्क आना महसूस होने लगेगा। लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर आगे पूरी तरह से मुस्लिम बहुल इलाका शुरू होने लगेगा। मठों के बदल अब मस्जिद दिखने लगेगी। वहीं बांशिदे मंगोलियसं लगेंगे। दिखने में लेह के बांशिदों की तरह, लेकिन धर्म अलग। एक लंबे थकाने वाले सफर के बाद करगिल से कुछ पहले शाम चार बजे हम एक चाय की दुकान में रुके और चाय बना रहे मुख्तर से पूछा कि करगिल की लड़ाई कहां हुई। मुख्तर जैसे इस सवाल का इंतजार में बैठा हो। तपाक से बोला ये जो उत्तरी पहाड़ी है न। यहीं पाकिस्तानी चेकपोस्ट है। यहीं से गोले बरसे और हम पर गिरे। हमने पूछा क्या अब डर नहीं लगता। वो छोटी मटकी में चाय डालते हुए बेपरवाह बोला, आदत है।
करगिल में प्रवेश करते ही पुलिस ने हमें डायवर्जन रूट पकड़ने को कहा। हमने कारण पूछा तो बताया कि किसी रसूखदार शख्स का जनाजा शहर के अंदर से गुजर रहा है। पुरा शहर मातम में है। हमने डायवर्जन से जाना ठीक नहीं समझा। हम वहीं पर रुक गए। लगभग सात बजे करगिल कस्बे में हमने प्रवेश किया। यहां लेह की तरह हालत दूसरे थे। हमे बतौर टूरिस्ट कोई तजव्वो नहीं दी गई। एक छोटे से होटल में कमरा लेने के बाद मैं नीचे रेस्टोरेंट में आ गया और चाय मांगी। तभी एक बुजुर्ग चाय बनाते हुए होटल के सामने दिखे तो उनसे अवाज लगा कर चाय होटल के रेस्टोरेंट में ही मंगा ली। अब मेरा ड्राइवर पहली बार बोला। भाईसाहब, आतंकवादी भी यहीं रहते होंेगे न। मेने बस उससे तफरी लेने के लिए इतना ही बोला, कभी भी हमला हो सकता है। फिर वो मुझे सुबह ही दिखा। बहरहाल, वहां होटल के बाहर कुछ कश्मीरी युवा खड़े थे। मैं उनके साथ खड़ा हो गया। कुछ ही देरी में मेरी उनसे दोस्ती हो गई और किस्सेबाज होने के कारण कुछ ही देर में मेने उन्हें उत्तराखंड आपदा से लेकर अमेरिका और इजारयल तक को लानत के किस्से सुना डाले।
अब वो मुझसे खुश थे। उन्होंने मुझे काबा (वहां की लोकल चाय) ऑफर की। अगली सुबह मैं भी आगे बढ़ चला।
दूसरा भाग !
करगिल में सुबह काफी सर्दी थी। चारों तरफ पहाड़ियों में कोहरा लगा था। पाकिस्तानी चेकपोस्ट वाली पहाड़ी में भी। मैं जल्दी ही करगिल छोड़ कर शाम तक सोनमर्ग पहुंचना चाहता था। जो वहां से 201 किलोमीटर दूरी पर था। केवल गर्म काबा पीने के बाद मेने करगिल पीछे छोड़ दिया और साथ ही छोड़ दी चौड़ी और अच्छी सड़क। इसके बाद की सड़क कहीं कहीं बेहद संकरी और अत्याधिक खराब है। नीचे बह रही सुरू नदी कई बार डरा भी देती है।
करगिल से कुछ ही आगे निकलने के बाद मुझे सेब का बगीचे दिखने शुरू हो गए। ज्यादातर बगीचे सड़क से लगते हुए ही हैं। सड़क किनारे एक सेब का बगीचा कुछ असामान्य से लगा तो मेने जीप रोक ली। ध्यान से देखा तो बगीचे के बीचों बीच कंकरीट की छत से ढका एक गड्डा था। जिसके दो तरफ से छेटी से खिड़की थी और खिड़की के बाहर नली नुमा चीज निकली हुई थी। गौर से देखने पर मैं समझ गया और आगे बढ़ने में भलाई समझी। वो एक बंकर था और वो नली एलएमजी की नाल थी। नाल गांव की तरफ थी।
अब मंजर बदलने लगा था। हर तरफ फौज, एलएमजी, बंकर और पेड़ में छुपे बैठै स्नाइफर। यहां तैनात फौजी काले कपड़े से पूरा मुंह छुपाते हैं। यहां तक की कमिशन आफिसर भी। कोई अपनी पहचान गांव वालों को नहीं बताता। एक अनजाना डर फौजियों में भी दिखता है और गांववासियो में भी। तीन घंटे बाद कक्सार पहुंचा। कक्सार में जीप बाजार में खड़ी कर सोचा थोड़ा गांव घूम आता हूं। बाजार से थोड़ा ऊपर एक पंगडंडी नुमा रस्ता जा रहा था। मुझे किसी ने बताया कि वहां इंटरकॉलेज है, जिसमें आज ब्लॉक स्तरीय फुटबॉल मैच चल रहा है। मुझे लगा वहां कुछ लोग मिल जाएंगे बातें करने के लिए। लिहाजा, मेने पंगडंडी पकड़ ली। मुश्किल से सात सौ मीटर चलने पर मैं ग्राउंड की बाउंड्री के बाहर खड़ा था। वहां दो टीमों के बीच मुकाबला पूरे हाई वोल्टेज में था। मैं ग्राउंड के अंदर घुस गया और एक ओर घास में बैठ कर वहां का जायजा लेने लगा। मेने ग्राउंड के चारों ओर नजर दौड़ाई तो मुझे फिर से कई असामान्य चीजें दिखीं। मसलन, चारो तरफ बख्तर बंद वाहन और उसके अंदर बैठै स्नाइफर। हर तरह काला कपड़ा मुंह से ढके फौजी और बेपरवाह खेलते खिलाड़ी। वहां मेने एक बुजुर्ग से बातचीत शुरू की। नाम अब याद नहीं उनका। उन्होंने मुझे बताया कि फौज तो रहती है, लेकिन आज कुछ ज्यादा इसलिए भी है क्योंकि मीडिया ने आर्मी के हवाले से ही खबर दी है कि इन पहाड़ियों में आतंकवादियों (उसने आंदोलनकारी कहा) का मूवमेंट देखा गया है।
मुझे वहां अजीब से घूटन होने लगी और मैं नीचे चला आया। सुंदर और बर्फ से लकदक पहाड़ियों के बीच मुझे पहली बार घुटन हो रही थी। नीचे ड्राइवर जीप में बैठकर चाय पी रहा था। मैं बगल वाली सीट पर बैठ गया और जीप चलने लगी। उसके बाद कुछ ही देर बाद में करगिल वॉर मेमारियल के बाहर था। करगिल वॉर मेमोरियल तोलोलिंग की पहाड़ी के नीचे स्थित है और यहां पर युद्व के दौरान की सभी हथियार रखे हुए है। यहां पर कैप्टन थापा भी मिले जिनका परिवार दून के गढ़ीकैंट में रहता था। यहां से सामने दिखता है टाइगर हिल। भारत की शान। जिसे पाकिस्तानी कब्जे से छुड़ाने में भारत के कई जवानो को शहादत देनी पड़ी। वॉर मेमोरियल में एक घंटा गुजारने के बाद बीस किलोमीटर आगे ही द्रास सेक्टर पहुंचा। रास्ते में हर तरफ बख्तर बंद वाहन और ग्रेनेड और एके 47 से लैस फौजी दिखने अब आम बात हो गई थी। फौजियों की एकके 47 पर चिपकी उंगलियां बता रही थी कि कितना टेंशन में वो यहां इन सुंदर वादियों के बीच रहते हैं। दोपहर ढाई बजे दाचीगाम पहुंचा। ये गांव कुछ अपने गांव की तरह लगा। छोटी छोटी दुकाने और ढालूनुमा घरों की छते। खूबसूरत लोग। महिलाएं भी निश्चित तौर पर खूबसुरत होंगी, लेकिन वो बुर्के में थी। साफ सुधरे कपड़े। सेब के बगीचे उनकी उन्नति का रास्ता कई दशक पहले खोल चुके थे। सेब की रेड डिलीसियस और गोल्डन डिलीसियस प्रजाति सबसे मीठी यहीं पाई जाती है। गांव में एक घर सजा हुआ था। पास जाकर देखा तो वहां शादी समारोह हो रहा था। फिर जो दिखा, वो फिर से बेचैन कर गया।
विवाह वाले घर की छत में स्नाइफर काला कपड़ा मुंह से ढका छुपा हुआ था। जिस चबुतरे में विवाह की रश्मे हो रही थी, उसके बगल में बख्तर बंद वाहन खड़ा था। जिसके अंदर से एलएमजी की नली बाहर लोगों की जश्न मनाती भीड़ में तनी हुई थी। उफ….. क्या लोग है मेरा ड्राइवर बुदबुदाया। शाम पांच बजे जोजिला दर्रा को पार करते हुए मेने और ड्राइवर के बीच कोई बात नहीं हुई। सड़क पर जमी बर्फ से कई बार जीप का टायर फिसल जाता और नीचे सैकड़ों फीट खाई दिखती। जब दर्रा पार हो गया तो दोनों ने एक लंबी सांस बाहर छोड़ी और एक दूसरे की तरफ देखते हुए बस मुस्करा दिए। हम सात बजे सोनमर्ग पहुंचे। इस दौरान लगभग आठ चेकपोस्ट हमने पार की। हर चेकपोस्ट में फौजी वाहन की चेकिंग करते हैं और पुलिस के जवान वाहन के कागज। फौजी अपना काम करके किनारे हो जाते है, लेकिन पुलिस का जवान आपको आगे जाने से रोक देगा। वो बतायेगा कि आगे रोड खराब है और जम्मू कश्मीर में तीन बजे के बाद बाहर से आने वाले वाहनों को आगे जाने नहीं दिया जाता। काफी मानमनोव्वल के बाद आप उसे दो सौ रुपये दिजीये और आगे बढ़ जाइये। आर्मी का जवान पुलिस की तरफ से मुंह मोड़ लेगा। मानो एक मौन स्वीकृति दे रहा हो। हर चेकपोस्ट में रुपये भेंट चढ़ाने के दौरान यही सोचता की पुलिस का चरित्र पूरे भारत में एक सा है। हम खामंखा यूपी पुलिस को लानते देते हैं।
- Youth Icon Yi National Media Report 28.07.2016
Nice article.
बढ़िया और सच्चा आर्टिकल है ये मनमीत कश्मीर जितना सुन्दर है उसको सिर्फ अनुभव ही किया जासकता है पर् वहॉ के बाशिंदों ने स्वर्ग को क्या बनादिया
इसके जिम्मेदार राजनीतिज्ञ और कुछ खुद गरज लोग है
मैनेभी कश्मीर को बहुत करीब से देखा है ।वहां के चौपट होते व्यापर को भी अफ़सोस की कोई वहां के रहने वालों का दुःख दर्द भी समझे
जबरदस्त आर्टिकल मनमीत (मोंटी) भाई। आपके श्ाब्दों से कारगिल के का सफ़र जिबन्त हो गया ।
एक अनजाना डर फौजियों में भी दिखता है और गांववासियो में भी।