We’re are being fooled…पहाड़ी जनता क्यों ठगी जा रही है साहब ! अस्थाई राजधानी में स्थाई निर्माण क्या कहता है ? बता रही हैं पूजा डोरियाल क्लिक कर पढ़ें ।
हुक्मरानों ने कभी इसे ऊर्जा प्रदेश की संज्ञा दी तो कभी इसे आयुष प्रदेश का दर्जा देने की बात चली वही कभी पर्यटन प्रदेश तो कभी बागवानी जैसे कई विकास के रथ पर दौड़ने की बाते सामने आई। मगर आज के परिपेक्ष में अगर हम बात करे तो ये राज्य विकास की किसी भी पटरी पर नही दौड़ पाया है। आलम यह है कि राजधानी तो अस्थाई है मगह यहां अब तक हुए सभी निर्माण कार्य स्थाई है। वही इसके दूसरे पहलू पर नजर डाले तो सरकारे स्थाई राजधानी के लिए बजट का रोना रोती है मगर अस्थाई राजधानी में पैसो को विनियोजित ढंग से बहाया जा रहा है।
उत्तराखंड राज्य को बनें भले ही 17 साल पूरे हो चुके हो मगर इसे इस राज्य का दुर्भाग्य ही कहेंगे की ना तो यहां के हुक्मरान अब तक राज्य की स्थाई राजधानी का चयन कर पाए है और ना ही इस राज्य को लेकर विकास की दिशा का निर्धारण किया जा सका है। आलम यह है कि राजधानी तो अस्थाई है मगह यहां अब तक हुए सभी निर्माण कार्य स्थाई है। वही इसके दूसरे पहलू पर नजर डाले तो सरकारे स्थाई राजधानी के लिए बजट का रोना रोती है मगर अस्थाई राजधानी में पैसो को विनियोजित ढंग से बहाया जा रहा है।
9 नवंबर सन् 2000 ये वो तारीक थी जब उत्तराखंड इस देश में 27 वें राज्य के रूप में अस्तिव में आया। राज्य गठन को लेकर काफी लंबे समय से चले जनआंदोलन में जनता की इस राज्य को लेकर सिर्फ एक ही भावन मन में रही कि पर्वतीय राज्य होगा तो पहाडो का विकास होगा। सरकार पहाडो में जनता के बीच में रहेगी। मगर अफसोस राज्य गठन के बाद से ही जनता के राज्य गठन को लेकर देखे गए सपनें सभी चकनाचूर होते गए। पहले जहा राजधानी के नाम पर ठगा गया वही जानकर ये भी मानते है कि अब तक कि सरकारें ये तय करने मे भी असमर्थ रही है कि आखिर पहाड़ी राज्य के नाम पर बने इस राज्य को विकास की किस पटरी पर दौड़ाया जाए। यहां हुक्मरानों ने कभी इसे ऊर्जा प्रदेश की संज्ञा दी तो कभी इसे आयुष प्रदेश का दर्जा देने की बात चली वही कभी पर्यटन प्रदेश तो कभी बागवानी जैसे कई विकास के रथ पर दौड़ने की बाते सामने आई। मगर आज के परिपेक्ष में अगर हम बात करे तो ये राज्य विकास की किसी भी पटरी पर नही दौड़ पाया है।
वही राज्य गठन के बाद से जहा अब तक सरकारें राज्य के संस्थागत ढांचे को नही गढ़ पाई है वही सीमित संसाधनों में भी राज्य जहा एक तरफ अर्थिकि का रोना रोता रहा है वही पैसे की बर्बादी का सिलसिला कुछ इस तरहा है कि राजधानी तय नही है मगर सचिवालय भवन से लेकर राजभवन, समेत मुख्यमंन्त्री जैसे तमाम विभगो को सिर्फ खाना पूर्ति के नाम और अनियोजित ढंग से सिर्फ निपटने के ढंग से बनाया जा रहा है। निर्माण कार्यो का आलम यह है कि सचिवालय के 2 भवनों को जोड़ने के लिए 17 साल बाद एक पुल बनाना पड़ता है। जबकि इंटरकनेक्ट बुलडिंग भवनों को सुनियोजित ढंग से बनाने के दौरान पूरी की जा सकती थी जिसे वक़्त के साथ खाना पूर्ति भी कहा जा सकता है।
राज्य गठन के बाद से अब तक जहा राजनीतिक दृढ़ इच्छा शक्ति के बिना अब तक जहाँ राज्य अपनी एक दिशा का निर्धारण नही कर पाया है वही राजनीतिक दलों में एक दूसरे की टांग खिंचाई का ही नतीजा है कि अब तक राज्य में 9 मुख्यमंन्त्री हो चुके है। जिसे देख कर ये कहना गलत नही होगा कि इस राज्य के विकास पर ध्यान से ज्यादा यहां पर दोनों ही राष्ट्रीय पार्टियो ने इसे सिर्फ एक राजनीति की एक परियोशाल बना डाला है और राज्य अपने पर्वतीय अस्तित्व को कही खो चुका है।
आयोगों को समाप्त करके के बाद ही गैरसैण का सपना देखा जा सकता है !
आज भी लोगो को गैरसैण राजधानी के नाम पर ठगा जाता हैं जब चुनाव का माहोल आता हैं । साहब इन गरीबो को क्यों ठगते हो क्योकि जिसके पास भी पैसा था वो गाओं से पलायन कर देहरादून हल्द्वानी में बस गए । रह गए गाओं के गरीब ।।
ये सबसे बड़ा दुर्भाग्य हैं हमारे पहाड़ के लिए जो 17 सालो में राजधानी नहीं बना पाया वो और क्या सुविधाये देगा ।
साहब उस गरीब को पूछो पहाड़ का दर्द जो विमार या एक्सिडेंट में इलाज के कारण देहरादून या हल्द्वानी पहुचते पहुचते प्राण त्याग देता हैं ।
कभी तो रहो पहाड़ में दर्द पता चलेगा साहब देहरादून में ऐसी में बैठकर उस दर्द को महसूस नहीं कर सकते हो न ही राजधानी बना सकते हो