Zero tolerance आ भी आओ…. ! तो क्या … झूठा है भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार के जीरो टाॅलरेंस का दावा ?
* आखिर इस विभाग के घोटाले पर मौन क्यों बनी हुई है उत्तराखंड सरकार ?
* क्या सीनियर ऑफिसर को मिल रहा है सरकार से संरक्षण जिसकी वजह से हो रहा है विभाग का बंटाधार ?
देहरादून । भ्रष्टाचार को लेकर जीरो टालरेंस की बात करने वाली त्रिवेन्द्र सरकार को उनका एक अदना सा निगम जिसका नाम वन विकास निगम है ढेंगा दिखाता नजर आ रहा है। राज्य गठन से अब तक वन विकास निगम में घोटालों का शोर उठता रहा है लेकिन कभी किसी सरकार ने वजह जानने की कोशिश नहीं की। 6 माह की हो चुकी राज्य सरकार के मुखिया और मंत्रीगण बार-बार भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टालरेंस की बयान बाजी तो करते नजर आते हैं लेेकिन बात जब वन विकास निगम के कार्यों की होती है तो कोई भी कुछ बोलने को तैयार नहीं होता? आखिर एक अदने से निगम में भ्रष्टाचार फैलाने वालों की हैसियत क्या इतनी बड़ी हो गई कि कार्रवाही करने में सरकार को इतना सोचना पड़ रहा है।
अभी हाल में बरिष्ठ पत्रकार संजय रावत ने भी अपनी रिर्पोट में इस बात का खुलासा किया था कि वन विकास निगम ने एक ही समूह की कई फर्मों (हल्द्वानी लालकुआं धर्मकांटा ओनर्स वेलफेयर सोसायटी, नन्धौर हल्द्वानी उज्जवल धर्मकांटा, आंचल धर्मकांटा समिति एवं ओम गुरू ट्रेडर्स) को सीधा लाभ देने के लिए जब्बर सिंह सुहाग (आईएफएस) द्वारा किस तरह चक्रव्यूह रचे जाते हैं। इन सभी ठेको से आने वाली बड़ी रकम मजदूरो के कल्याण के बजाय ठेकेदारों और विभागीय अधिकारियो के कल्याण में ही स्वाह हो जाती है। पत्रकार संजय रावत की एक और रिपोर्ट ने वन विकास निगम के भ्रष्टाचार की पोल खोलने का काम किया है।
धर्मकांटो के गड़बड़झाले से लाखों का हेरफेर
संजय रावत की इस पढ़ताल में उन्होंने धर्मकांटो के गड़बड़झाले को सामने लाने का काम किया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक गौला नदी में लगे धर्मकांटे ठेकेदारों के हैं और नंधौर नदी में लगे मापतोल कांटे खुद वन निगम के हैं। धर्मकांटो में गोलमाल का गणित इस कदर दिलचस्प है कि, जो साफ नजर आता है, जबकि इस तरह के किसी भी ठेके आमंत्रित करने का कोई औचित्य नहीं है। चूंकि जिन उद्देश्यों को लेकर ये ठेके आमंत्रित किये जाते है उनसे किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती।
गौला नदी के 11 गेटों पर कुल 26 धर्मकांटे स्थापित किये गये हैं जिनमें 7,544 वाहनों को नियमानुसार गुजरना होता है। मापतोल की कीमत रखी गयी 50 रुपए प्रतिवाहन, जिनमें से 35 रुपए प्रति वाहन वन विकास निगम और 15 रुपए प्रति वाहन ठेकेदार की फर्म को जाते हैं। निगम को जाने वाले 35 रुपए मेें से ही गौला नदी में गाड़ियों में उपखनिज भरने वाले मजदूरो के कल्याणकारी हितो को साधने का प्रावधान है। मान लिया जाए कि 7,544 वाहनों में से 6 हजार वाहन ही गौला में आवाजाही करे तो 6 हजार वाहनोें से लिये गये 35 रुपए प्रतिवाहन के हिसाब से रकम हुई 2 लाख 10 हजार रुपए प्रतिदिन, अब ये वाहन माह भर में 26 दिन ही चले तो रकम हुयी 21 लाख गुणा 26, यानी 54 लाख 60 हजार रुपए प्रतिमाह। यदि नदी से 8 माह खनन सत्र के बजाय 7 माह ही खनन हुआ तो ये रकम बनी 3 करोड़ 82 लाख 20 हजार रुपए प्रतिवर्ष।
अब नंधौर नदी का रूख करे तो वहां वाहन नापतोल की कीमत निर्धारित है 25 रुपए प्रति वाहन। जिसमें से 15 रुपए 40 पैसे निगम को और 9 रुपए 60 पैसे प्रति वाहन ठेकेदार की फर्म को अदा होते है। नंधौर मेें करीब 3500 वाहन पंजीकृत है। यदि 2500 वाहनों के हिसाब से गणना करे तो 2500 गुणा 15.40 यानी 38 हजार 5 सौ रुपए प्रतिदिन। यदि माह में 26 दिन वाहन उपखनिज ढोते है तो ये रकम बनी 38,500 गुणा 26 यानी 10 लाख एक हजार रुपए प्रतिमाह। खनन सत्र 8 माह की जगह 7 माह भी चला तो ये रकम बनी 70 लाख 7 हजार रुपए प्रतिवर्ष।
कुछ नहीं आता गरीब मजदूरों के हाथ
गौला और नंधौर नदी में खनन के लिये इन तमाम उपकरणों (इलैक्ट्रानिक मापतौल कांटे, टेलीकाॅम टावर, आर.एफ.आई.डी. चिप और सी.सी.टी.वी. कैमरे) का चलन वर्ष 2006 से शुरू हुआ तो समझा जा सकता है कि कितनी बड़ी रकम मजदूर कल्याणकारी योजनाओं के लिये एकत्र होती है, पर धरातल पर कुछ भी मजदूरों के हाथ नही आता।
वन विभाग ने कई बार पकड़ा वन निगम का भ्रष्टाचार
संजय रावत की पढ़ताल में सामने आया कि लाखों रूपये खर्च कर खरीदे गए उपकरणों का इस्तेमाल हो ही नहीं रहा है। इस बात को ऐसे समझा जा सकता है कि इनकी मुस्तैदी के बाद वन विभाग द्वारा एक ही पंजीकृत नंबर (परिवहन विभाग)के दो-दो वाहनों को नदी के अंदर ही दबोचा गया। और ऐसा एक मामला नहीं बल्कि 50 मामले है जो वन विभाग ने श्वन निगम की मौजूदगी में पकड़े है। यानी आर.एफ.आई.डी.चिप, टेलीकाॅम टावर, सी.सी.टी.वी. कैमरे और इलैक्ट्रानिक कांटो ने भी अवैध वाहनों की आवाजाही से आंखें फेर ली थी।
वन विभाग ने वन निगम की मौजूदगी में 674 ऐसे वाहन भी पकड़े जो टनों अतिरिक्त खनिज चोरी कर ले जा रहे थे। सारे उपकरणों के बाद भी निकासी गेटोें से खनिज चोरी हो जाती है और इस पर कोई जांच न होकर यथावत सबकुछ कैसे चलता है ये अलग पड़ताल का मामला है। वन विकास निगम के भ्रष्टाचार को लेकर वरिष्ठ पत्रकार संजय रावत कई रिपोर्ट तथ्यों के आधार पर सामने ला चुके हैं अगर प्रशासन या शासन को कोई कार्रवाही करनी होती तो उनकी रिपोर्ट को आधार बनाकर की जा सकती थी, लेकिन करे कौन? आखिर हमाम सब नंगे जो हैं।
जेएस सुहाग कर रहें हैं विकास निगम का बंटाधार: बिष्ट
उत्तराखंड वन विकास निगम कर्मचारी संगठन लगातार अपर प्रबंध निदेशक एवं महाप्रबंधक कुमाऊं जेएस सुहाग पर अनियमितताओं के आरोप लगाते हुए उन्हें पद से हटाने की मांग कर रहे हैं। उत्तराखंड वन विकास निगम कर्मचारी संगठन के प्रदेश अध्यक्ष पूरन सिंह बिष्ट का कहना है कि अपर प्रबंध निदेशक ने हाल ही में भर्ती प्रक्रिया में अधिप्राप्ति नियमावली को दरकिनार किया और एक एजेंसी के माध्यम से नियुक्ति प्रक्रिया पूरी करा 54 लाख रुपये का भुगतान कर दिया। जबकि, उच्च न्यायालय ने वन विकास निगम में भर्ती प्रक्रिया को रोक दिया है। इसके अलावा कुमाऊं क्षेत्र में कोटेशन के माध्यम से करीब 11 लाख रुपये की पावर चैन खरीदी गई, जबकि इसकी किसी भी प्रभाग से कोई मांग नहीं थी। लिहाजा, ये पावर चैन गोदामों में जंग खा रही हैं। जीएसटी से संबंधित कार्यो को भी अधिक दरों पर कराया गया। यह कार्य कोटेशन के माध्यम से 10 से 11 लाख रुपये में होने थे, लेकिन प्रदेश के बाहर के सनदी लेखाकार को 40 लाख रुपये के कार्य आंवटित कर दिए। इसके अलावा भी अनियमितताओं की लिस्ट लंबी है और जेएस सुहाग विभाग में तीन साल की प्रतिनियुक्ति पर आए थे, लेकिन उन्हें सात वर्ष से ज्यादा का वक्त हो गया है। वह निगम को चूना लगा रहे हैं और कई बार उन्हें हटाने की मांग की जा चुकी है, लेकिन कोई कार्यवाही नहीं हुई। लिहाजा, आंदोलन के लिए बाध्य होना पड़ रहा है। कार्यवाहक अध्यक्ष श्रीकृष्ण रतूड़ी, महामंत्री हरदेव सिंह रावत, वरिष्ठ उपाध्यक्ष भुवन चंद्र बिष्ट, और वन विकास निगम के कर्मचारी कैलाश पैन्यूली, सुरेंद्र बलूनी, सुदर्शन काला, अनिल अधिकारी, जेपी बहुखंडी, प्रेम सिंह चैहान का भी मानना है कि अपर प्रबंध निदेशक एवं महाप्रबंधक कुमाऊं जेएस सुहाग ने वन विकास निगम को भ्रष्टाचार का अड्डा बनाकर रख दिया है।
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यह सरकार भरस्टाचार पट सिर्फ बाते करने पर भरोसा रखती है कार्यवाही पर नही