घोड़े की टांग की आड़ में बीजेपी को घेरने वाले मुख्यमंत्री हरीश रावत खुद अपनों से घिर गए हैं। अवसर का लाभ उठाने में सिद्धहस्त रावत ने खुद की अभिमन्यु के रूप में ब्रांडिंग भी शुरू कर दी है। खुद को बेचारा, शहीद और षड्यंत्र का शिकार बताने का मीडिया प्रबन्धन शुरू हो गया है।
अटल जी ने पाकिस्तान को नसीहत दी थी कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता वे पंक्तियाँ आज मुख्यमंत्री रावत पर फिट बैठती हैं। जिस मीडियाबाजी, विधायक असन्तोष और दि
ल्ली दौड़ द्वारा वे एन डी तिवारी और विजय बहुगुणा को खून के आँसू रुलाते रहे उसी दाँव के वे खुद शिकार हो गए। यह कोई आश्चर्यजनक नहीं है क्योंकि कांग्रेस हाईकमान ने उनकी भी बहुत ब्लैकमेलिंग झेली है।
उत्तराखण्ड आजकल संवैधानिक संकट से जूझ रहा है। जनादेश का चौराहे पर चीरहरण करने वाले राजनेता इसके दोषी हैं। नेतृत्व परिवर्तन दलीय रणनीति का भी हिस्सा होता है, चुनावी गणित के मद्देनज़र भी होता है। इस बार तानाशाही और अहंकार की बगावत से भिड़न्त है। रावत सरकार अपनी भीतरी कानून व्यवस्था से घायल है।
कांग्रेस के नौ विधायक जिनमें एक पूर्वमुख्यमंत्री और एक वरिष्ठ मंत्री हैं खुलकर बगावत कर चुके है, यह कांग्रेस पर बड़ा संकट है। इतनी विस्फोटक बगावत के लिए बीजेपी दोषी नहीं हो सकती।अनुभवी हरीश रावत अपने नौ विधायकों को मासूम बताकर बीजेपी को मुख्य निशाने पर ले रहे है ताकि जनता के बीच बीजेपी को खलनायक बताकर घेरा जा सके और अपने बागी विधायकों की वापसी की गुंजाइश भी बनी रहे। सत्ता पुनर्जीवन का हर टोटका अपनाया जा रहा है।
अनेक राजनीति के चाणक्य यह दलील दे रहे हैं कि भाजपा को इस युद्ध में नहीं कूदना था। भाजपा हाईकमान ने मुख्य विपक्षी दल होने के नाते अनेक विरोधों, पिछली कटु स्मृतियों को भुलाकर बागियों को उन्हीं की सरकार के विरोध में साथ दिया ताकि लगातार जनता के बीच सरकार के खिलाफ बीजेपी द्वारा लगाये जाने वाले आरोपों की बागियों के द्वारा पुष्टि हो, क्योंकि वही आरोप बागी विधायक भी दुहरा रहे हैं यह बीजेपी की पहली जीत है।
बीजेपी ने कांग्रेस द्वारा प्रदेश में सत्ता सम्हालते के बाद जो भी आरोप लगाये उनपर कायम रहते हुए अपनी सैद्धांतिक विश्वसनीयता भी जनता के बीच रखनी होगी। इनमें केदारनाथ आपदा की राहतराशि का भी विषय है ।अगर भाजपा द्वारा सरकार पर गत चार वर्ष के आरोपों की श्रृंखला में कोई बागी विधायक भी निशाने पर है तो जनहित और जवाबदेही के आधार पर अडिग रहना होगा।
मुख्यमंत्री हरीश रावत से लेकर राहुल गांधी तक बीजेपी पर खरीदफरोख्त का आरोप लगा रहे है जबकि इन्हीं चार सालों में बीजेपी ने अपने निर्वाचित विधायक कांग्रेसी सौदेबाजी में गंवाये हैं। किरण मण्डल और भीमलाल इसके उदाहरण हैं, सोमेश्वर की विधायक रेखा आर्य को बीजेपी से ले जाकर अकस्मात कांग्रेस प्रत्याशी बनाना जनता की स्मृति में है।
अभी दोनों खेमे कांग्रेस व बीजेपी अट्ठाइस मार्च को होने वाले परीक्षण में अपने तर्क और संवैधानिक व्याख्याओं के आधार पर अपना दावा मजबूत मान रहे हैं। सरकार हँगामे के बीच मनी बिल को इन्हीं बागियों के समर्थन से पास मान रही हैं। अचानक यही अनुशासित विधायक गैलरी में आते ही बागी और अनुशासनहीन हो गए।उनके द्वारा की गयी नारेबाजी, राजभवन परेड और राज्यपाल को दिए सरकार विरोधी पत्र को घोर अनुशासन हीनता और सरकार विरोधी गतिविधि माना जा रहा है। हँगामे के इसी भाग को अपनी सुविधानुसार व्याख्या करके विधानसभा अध्यक्ष सदस्यता समाप्ति की जमीन तैयार कर रहे हैं।
दूसरी तरफ बीजेपी का मानना है कि सदन में मनी बिल गिर चुका है, अर्थात सरकार गिर चुकी है। सरकार की कैबिनेट बैठक, महाधिवक्ता को हटाने की राज्यपाल से सिफारिश, मंडी के अध्यक्षों को हटाना आदि सब अवैध हैं। सदन में शक्ति परीक्षण पर अड़ी बीजेपी बागियों की और संख्या बढ़ने के प्रति आश्वस्त है। सरकार के पास अपना कुनबा सम्हालने और मनाने का पूरा समय है।
अट्ठाइस मार्च को निर्णय हो जायेगा। रावत सरकार बचे या जाये किन्तु उनकी सरकार पर लगा कलंक लम्बे समय तक नहीं मिट पायेगा। विधानसभा अध्यक्ष कुंजवाल जो अनेक बार संवैधानिक पद की गरिमा के विपरीत कांग्रेसी बनकर हरीश रावत के लिए हथियार बने हैं आशा है वे शक्तिपरीक्षण के दौरान अपनी भूमिका के साथ न्याय करेंगे वे कतई नहीं चाहेंगे उन्हें उत्तर प्रदेश के पूर्व विधानसभा अध्यक्ष धनीराम वर्मा की तरह याद किया जाय। प्रतीक्षा कीजिये अट्ठाइस मार्च की।
नोट : सतीश लखेड़ा के यह अपने निजी विचार हैं ।
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